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मतिराम-ग्रंथावली

१५६ मतिराम-ग्रंथावली Satai इतना पता अवश्य चल जाता है कि मतिराम का अध्ययन कितना गहरा था। एक बात और है, सूर-जैसे महाकवि के भाव को मतिराम ने जिस कौशल से अपनाया है, उसे देखकर मन मुग्ध हो जाता है और मतिराम की मार्मिकता पर उन्हें बधाई देने को जी चाहता है। देखिए- (१) “रुंधे रति-संग्राम-खत नीके । एक-ते-एक रण-वीर, जोधा प्रबल, मुरत नहिं नेक, अति सबलजी के; भौंह को दंड, सर नैन, जोधानि की काम छूटनि कटाच्छनि निहारे।" महात्मा सूरदास के रति-संग्राम के लड़ाके कौन हैं ? वही श्रीकृष्ण और राधिकाजी; पर मतिराम ने दंपति के नेत्रों को ही सूर बना दिया है, और सब बातें वे ही हैं। "भौंह कमान, कटाक्ष सर, समर-भूमि बिचलै न; लाज तजेहूँ दुहुँन के सलज सूर-से नैन ।" (मतिराम) मतिराम की समर-भूमि अथवा स्मर (समर)-भूमि बड़ी ही समीचीन है। हमारी राय में वह 'रति-संग्राम-खेत' से विशेष भावमयी है। जब नेत्र लड़ गए हैं, तब उन्हें एक दूसरे का सामना करना ही होगा। ऐसी दशा में आँखों की झेंप कैसे रह सकती है ? सो वे अवश्य ही लाज तजे हैं, पर उन्हें सलज भी मानना ही पड़ता है; क्योंकि शूरवीरों को अपनी बात की बड़ी लाज होती है। दंपति के नेत्र भी बाण-प्रहार की परवा न करके 'समर-भूमि' से विचलित नहीं हो रहे हैं। बराबर वहीं डटे हैं। अपनी शूरता की लज्जा रख रहे हैं, तब उन्हें सलज कैसे न कहें ? सो वे यथार्थ में ही 'लाज तजेहूँ दुहुन के सलज सूर-से नैन' हैं ।