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मतिराम-ग्रंथावली

१७८ मतिराम-ग्रंथावली Hostinctual भूषण बड़े ही सिद्ध-हस्त हैं, परंतु प्रतिभा और काव्य-कला-कौशल में मतिराम का पद उनसे ऊँचा है। मतिराम और देव एक सहज सुंदरी, चारु कोमलांगी, सुकुमारी युवती अपने अंग- प्रत्यंगों की सुवास और दीप्ति से चारो ओर सुगंधि और आलोक फैलाती और अपनी मंद-मंद मुसकान से शुभ्र ज्योत्स्ना की ज्योति छिटकाती (रात्रि में) शयन करने के लिये अपने प्राणप्यारे के पास छत पर जाने लगी। चलने में किंकिणी बज उठी । बड़े ही असमंजस की बात है । घर के गुरुजन लोग अभी जग रहे हैं । वे लोग लजीली नायिका का प्रियतम के सन्निकट गमन जान जायंगे, इस विचार से बेचारी पद-पद पर जैसे-जैसे रसना (किंकिणी) बज उठती है, तैसे- ही-तैसे वह अपनी रसना (जीभ) को दाँतों से दबा लेती है। दाँतों से जीभ दबाने में लज्जित होने का जो भाव है, वह प्रकट ही है। यहाँ रसना पद की यमक ने इसे और भी चमत्कृत कर दिया है । नायिका की इस प्रकार की स्वाभाविक लज्जा का फ़ोटो मतिरामजी के मधुर शब्दों में इस प्रकार है- (१) "सहज सुबासयुत देह को दुगुनि दुति, दामिनि-दमक दीप केसरि कनक ते; 'मतिराम' सुकबि सुमुखि* सुकुमारि अंग, ____सोहत सिंगार चारु जोबन बनक ते । सोइबे को सेज चली प्रानपति प्यारे पास, जगत जुन्हाई जोति हँसनि तनक ते; चढ़त अटारी गुरु लोगनि की लाज प्यारी, रसना दसन दाबै रसना-झनक ते।"

  • पाठांतर-सिरीष ।