पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१९५

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समीक्षा १९१ जोबन आवत लाली सरीर मैं, हे 'रघुनाथ' कहाँ लौं बताइए; खौरि लगाइए चंदन की, अंग के सँग केसरि को रँग पाइए।" (रघुनाथ) दोनो कवियों के छंद तद्गुण-अलंकार के उदाहरण हैं। दोनो ही छंदों में मधुरता कूट-कूटकर भरी है। मतिरामजी के छंद में एक भी मीलित वर्ण नहीं आने पाया है। दो शब्दों को छोड़कर जिनमें चार या उससे अधिक अक्षर हैं, बाक़ी केवल दस शब्द तीन-तीन अक्षरों के हैं। सोलह शब्द केवल दो-ही-दो अक्षरों के हैं। आधे दर्जन के लगभग शब्द सानुस्वार है। हीरे-मोती के गहने सोने के समझ पड़ते हैं । सफ़ेद फूलों के हार पीले फूलों के मालूम होने लगते हैं। सफ़ेद कपड़े केसर-रंग से रंगे जान पड़ते हैं। शरीर की दीप्ति सभी पर अपना ही रंग जमा देती है। रघुनाथजी का छंद भी बड़ा ही अच्छा है, पर मतिराम के छंद को नहीं पाता। ___ मतिराम और पद्माकर साधारण हिंदी कविता पढ़नेवालों में सरल, विशेष अनुप्रासमयी तथा अधिक गंभीर न होने के कारण पद्माकरजी की कविता का मति- राम की कविता से कुछ विशेष आदर है । पद्माकर की कविता परम सराहनीय होते हुए भी मिठास, स्वाभाविक वर्णन-प्रवाह एवं गंभीरता- संयुक्त रमणीयता की दृष्टि से मतिराम का स्थान ऊंचा है। दोनो कवियों के प्रायः एक ही प्रकार के भाव तुलना के लिये उद्धृत किए जाते हैं- (१) "निसि-दिन स्रोनन पियूष-सो पियत रहै, छाय रह्यो नाद बाँसुरी के सुर-ग्राम को; तरनि - तनूजा-तीर, बन - कुंज, बीथिन मैं, जहाँ - तहाँ देखियत रूप छबि - धाम को।