"केसरि-रंग महाबरसै, सरसै रस-रंग अनंग-चमू के;
धूम धमारन को 'पदुमाकर' छाय अकास अबीर के मूके।
फाग यों लाड़िली की, तिहि मैं तुम्हें लाज न लागत गोप कहूँ के;
(पद्माकर)
उपर्युक्त दोनो छंद बिब्बोक हाव के उदाहरण हैं। अभिमान-वश नायिका प्रिय का अनादर करती है। कृष्णचंद्र का 'गँवारपन', उनका गोप होना इत्यादि दर्शित किया गया है। मतिरामजी ने अपनी आडंबर-शून्य स्वाभाविक भाषा में एक 'छैल', उद्धत गोप का फ़ोटो ही।खड़ा कर दिया है। पद्माकर के यहाँ केसर-अबीर का ऐसा बाहुल्य है कि सब कुछ उसी में छिप जाता है।
मतिराम और बेनीप्रबीन
कविवर मतिराम और बेनीप्रबीन के भावों में भी यत्र-तत्र सुंदर सादृश्य मौजूद है। उदाहरण के लिये केवल एक छंद दिया जाता है।
"कुंदन को रँगु फीको लगै, झलकै अति अंगन चार गोराई;
आँखिन मैं अलसानि, चितौनि मैं मंजु बिलासन की सरसाई?
को बिन मोल बिकात नहीं, 'मतिराम' लहै मुसकानि मिठाई?
ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे ह्वै नैनन, त्यों-त्यों खरी निसरै-सी निकाई।"
(मतिराम)
"चंपक-सो तनु, नैन सरोज-से, इंदु-सो आनन, जोती सवाई;
बिब-से ओठ, लसै तिल-फूल-सी नासिका, स्वास सुबास सोहाई।
बाहैं मृनाल-सी, 'बेनीप्रबीन' उरोज उतंगन यों छबि छाई;
(बेनीप्रबीन)