पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१९७

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समीक्षा १९३ "केसरि-रंग महाबरसै, सरस रस-रंग अनंग-चमू के ; धूम धमारन को 'पदुमाकर' छाय अकास अबीर के मूके । फाग यों लाड़िली की, तिहि मैं तुम्हें लाज न लागत गोप कहूँ के ; छैल भए छतिया छिरको, फिरो कामरी ओढ़े गुलाल के ढूके ।" (पद्माकर) उपर्युक्त दोनो छंद बिब्बोक हाव के उदाहरण हैं । अभिमान-वश नायिका प्रिय का अनादर करती है । कृष्णचंद्र का 'गँवारपन', उनका गोप होना इत्यादि दर्शित किया गया है । मतिरामजी ने अपनी आडं- बर-शून्य स्वाभाविक भाषा में एक 'छैल', उद्धत गोप का फ़ोटो ही खड़ा कर दिया है। पद्माकर के यहाँ केसर-अबीर का ऐसा बाहुल्य है कि सब कुछ उसी में छिप जाता है। मतिराम और बेनीप्रबीन कविवर मतिराम और बेनीप्रबीन के भावों में भी यत्र-तत्र सुंदर सादृश्य मौजूद है। उदाहरण के लिये केवल एक छंद दिया जाता है। "कुंदन को रँगु फीको लगै, झलकै अति अंगन चार गोराई : आँखिन मैं अलसानि, चितौनि मैं मंजु बिलासन की सरसाई ? को बिन मोल बिकात नहीं, 'मतिराम लहै मुसकानि मिठाई ? ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे ह नैनन, त्यों-त्यों खरी निसरै-सी निकाई।" (मतिराम) "चंपक-सो तनु, नैन सरोज-से, इंदु-सो आनन, जोती सवाई ; बिब-से ओठ, सै तिल-फूल-सी नासिका, स्वास सुबास सोहाई । बाहैं मनाल-सी, 'बेनीप्रबीन' उरोज उतंगन यों छबि छाई ; ज्यों-ज्यों बिलोकिए जू प्रति अंगन, त्यों-त्यों लगै अति सुंदरताई।" (बेनीप्रबीन)