ओर से रावरत्न वहाँ के नरेशों को सदा दबाते रहे। इसी को लक्ष्य
करके मतिरामजी ने कहा है-
"बंस बारिनिधि-रतन भो रतन भोज को नंद ,
साहनि सों रन-रंग में जीत्यो बखत बलंद।"
जहाँगीर-पुत्र खुर्रमसिंह ने जब अपने पिता के विरुद्ध बग़ावत
का झंडा उठाया, तो शाहजादे के दमन करने का भार बादशाह ने
रावरत्न को ही सौंपा। उन्होंने इस काम को भी बड़े ही कौशल से
पूर्ण किया। रावरत्न के पुत्र गोपीनाथजी थे। यह बड़े ही उदार
और वीर थे। इनका एक ब्राह्मणी से अनुचित प्रेम था। ब्राह्मणी
के पति ने एक दिन राजकुमार को अपने घर में स्त्री के साथ देख
लिया। क्रोध के वशीभूत होकर उसने तत्काल उनकी हत्या कर
डाली। रावरत्नजी को अपने एकमात्र पुत्र की ऐसी मृत्यु पर शोक तो
बहुत हुआ, परंतु इस मामले में उन्होंने अपने पुत्र का ही दोष समझकर
ब्राह्मण को किसी प्रकार का दंड न दिया । न्याय-प्रियता में ऐसे
उदाहरण थोड़े ही मिलेंगे । यदि ऐसे उदार और ऊँचे भाव सत्ययुगी
कहे जायँ, तो अनुचित न होगा। जान पड़ता है, बूंदी-नरेशों के
ऐसे ही वीरोचित कार्यों का स्मरण करके मतिरामजी ने कहा था-
____ "जगत-बिदित बँदी नगर सुख-संपति को धाम;
। कलिजुग हूँ मैं सत्यजुग तहाँ करत बिसराम ।"
.: रावरत्न ने दिल्लीश्वर से यह प्रतिज्ञा कराली थी कि उनके शिविरों
के निकट गोवध न होने पाएगा। यह बड़े ही गोभक्त थे। उनके
गोरक्षा संबंधी कामों के विषय में मतिरामजी ने लिखा है-
"जोर दल जोरि साहिजादो साहिजहाँ जंग,
जुरि मुरि गयो, रही राव मैं सरम-सी;
कहै मतिराम', देव-मंदिर बचाए जाके,
बर बसुधा मैं बेद-ति-बिधि यों बसी।
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मतिराम-ग्रंथावली