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मतिराम-ग्रंथावली

नाथ-तने तिहि ठौर मरयो, जिय जानिक छत्रिन को रन कासी; सीस भयो हर-हार-सुमेरु, छता भयो आपु सुमेरु को बासी।"

रखःस्थल में लोहू बरसाकर शत्रुशाल ने जिस प्रकार 'रजपूती' की रक्षा की, उसका वर्णन भी मतिरामजी ने 'विरोधाभास' के उदाहरण में खूब किया है । 'रज' का अर्थ 'धूल' और 'रजोगुण'(रजपूती) है। रणांगण में लोह की वर्षा के बाद भी रज का रह जाना विरोधाभास है, क्योंकि आर्द्र लोहू 'रज' को अवश्य बिठाल देगा, पर यहाँ 'रज' का अर्थ 'रजोगुण' का होने से प्रत्यक्ष विरोध नहीं रह जाता । मतिरामजी कहते हैं-

"दोऊ जुरे सहजादन के दल, जानत है सगरो जग, साखी मारू बजे, रस बीर छके, बर बीरन कौति बड़ी अभिलाखी । नाथ-तनै करतूति करी, जग-जोति जगी, 'मतिराम' सुभाखी; स्रोनित बैरिन को बरसायकै राव सता रन मैं रज' राखी।" शत्रुशालजी को इमारत का भी बड़ा शौक़ था। इन्होंने बूंदी के राजमहलों की अपूर्व श्री-वृद्धि की। इनका बनाया 'छत्र-महल' बड़ा ही विचित्र है। अनेक पाषाण-मूर्तियाँ, सरोवर और कूप आदि भी इन्होंने निर्माण कराए थे। इनका देहांत सं० १७१५ में हुआ, और इनके पुत्र राव भावसिंहजी उसी वर्ष बूंदी के राजसिंहासन पर अभि-षिक्त हुए। इन्हीं राव भावसिंहजी के आश्रित कविवर मतिरामजी थे, और 'ललितललाम' इन्हीं के आदेश से निर्मित हुआ। भावसिंहजी का शासन-काल स० १७१५ से १७३८ तक है। मतिरामजी ने भावसिंहजी को कई जगह 'बलाबंध'-पति कहा है। मेहता लज्जाराम-जी ने अपने 'पराक्रमी हाड़ाराव'-नामक ग्रंथ के पृष्ठ २६५ पर 'बलाबंध' शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है-

"बलाबंध=आड़ाबला। वह पहाड़ी सिलसिला, जो बूंदी के राज्य में ओर से छोर तक निकल गया है।"