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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२४५

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२४१
समीक्षा

समीक्षा २४१ | राव भावसिंह सं० १७१५ में बूंदी के राजसिंहासन पर बैठे । इनके पिता जिन औरंगजेब के विरोधी थे, वही इस समय दिल्ली के अधीश्वर हो रहे थे। ऐसी दशा में राव भावसिंह के शत्रुओं की संख्या कम न थी। उनको दमन करने में राव भावसिंहजी को कम- से-कम दो वर्ष अवश्य ही लगे होंगे। इस दो वर्ष के समय में इनका दिल्ली से किसी प्रकार का संपर्क न रहा। राजपूताने के अन्य राजा- महाराजा दिल्ली-नरेश को प्रसन्न करने का उद्योग करते रहे; परंतु इन्होंने अपने राज्य को सुदृढ़ करना ही ठीक समझा। शत्रु-दमन एवं सुशासन से इनकी धाक बैठ गई। संवत् १७१७ के लगभग दक्षिण में संभवतः शिवाजी और मुग़लों से छेड़छाड़ आरंभ हुई। भावसिंहजी के बाबा रावराजा रत्नसिंह दक्षिण में विद्रोह शांत करने में ख्याति-लाभ कर चुके थे। ऐसी दशा में मराठों के प्रारंभिक आक्रमणों के समय औरंगजेब ने भावसिंहजी से अपने बाबा के काम पर जाने के लिये कहा, और इन्होंने जाकर कुछ आक्रमण निवारण किए। राव भावसिंह औरंगाबाद में पड़ाव डालकर वहीं से लड़ते थे । वहीं इन्होंने एक भावपुरा-गाँव बसाया था। यहीं इनकी मृत्यु हुई। जदुनाथ सरकार ने भावसिंह के दक्षिण समर में रहने का वर्णन किया है। मतिरामजी तथा भूषण इस बात को अपने निम्न- लिखित छंदों द्वारा पुष्ट करते हैं- "सूबनि को मेटि दिल्ली-देस दाबिबे को चमू, सुभट समूहनि सिवा को उमहति है; कहै 'मतिराम', ताहि रोकिबे को संगर मैं काहू के न हिम्मति हिए मैं उलहति है। सत्रुसाल-नंद के प्रताप की लपट सब गरबी गनीम बरगीन को दहति है;