पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२७७

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२७३
रसराज

रसराज २७३ प्रेमविता-लक्षण निज नायक के प्रेम कौं गरब जानवै बाल । प्रेम-गरबिता कहत हैं तासौं सुमति-रसाल ॥१०१॥ उदाहरण मेरे हँसे हँसत हैं, मेरे बोले बोलत हैं, मोही कौं जानत तन-मन-धन-प्रान री; कबि ‘मतिराम' भौंह टेढ़ी किए हाँसी हू मैं, छोड़ देत भूषन-बसन, खान-पान री ! मोतें प्रानप्यारी प्रानप्यारे के न और कोऊ, तासों रिस कीजै कहौ कहाँ की सयान री ! मैन-कामनी के मैनकाह के न रूप रीझे, ____ मैं न काहू के सिखायें आनों मन मान री ! १०२॥ औरन के पाइन दियो नायनि जावक लाल । प्रान-पियारी रावरी परखति तुम्हें रसाल ॥१०३॥ रूपवता-लक्षण जाकें अपने रूप को अति ही होय गुमान । रूप-गरबिता कहत हैं तासौं परम सुजान ॥१०४॥ उदाहरण सोय रही रति अंत रसीली अनंत बढ़ाय अनंग-तरंगनि; केसरि-खौरि रची तिय के तन प्रीतम और सुबास के संगनि । १ मोहि को सो जानत है, २ सी। छं० नं० १०२ मैन-कामिनी रति । मैनका=एक अप्सरा का नाम । छं० नं० १०५ भौंह के भंगनि=भ्रूभंग द्वारा, भवें चढ़ाकर । रूप का गर्व इस प्रकार से प्रकट हुआ कि नायिका को केसरि का लगाया जाना नहीं रुचा, क्योंकि वह अपनी अंग-दीप्ति और अंग- सुगंधि को केसरि से बढ़कर मानती थी।