पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२७९

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रसराज २७५ मुग्धा-प्रोषितपतिका-लक्षण जाको पिय परदेश मैं बिरह-बिकल तिय होय । प्रोषितपतिका-नायका ताहि कहत सब कोय ॥१११॥ उदाहरण बार कितेक सहेलिन के कहैं कैसेहँ लेत न बीरी सँवारी; राखति रोकि कहै 'मतिराम' चलै अँसुवा अँखियान तें भारी। प्रानपियारो चल्यो जब तैं, तब तें कछ और ही रीति निहारी; पीरी जनावति अंगन मैं कहि पीर जनावत काहे न प्यारी॥ ११२॥ पिय-बियोग तिय-दग-जलधि जल-तरंग अधिकाय। बरुनि-मूल-बेला परसि, बहरयो जात बिलाय ॥११३॥ मध्या-प्रोषितपतिका-उदाहरण चंद के उदोत होत नैन-कंज तपे कंत, छायो परदेस देह दाहनि दगतु' है; उसिर, गुलाब-नीर, करपूर परसत, बिरह-अनल-ज्वाल-जालन जगत है। १ बहुत । छं० नं० ११२ बार कितेक कई बार । बीरी=पान । पीरी जनावति अंगन मैं शरीर पीला पड़ा जाता है । 'कहि पीर जनावति काहे न प्यारी' पद से मुग्धत्व स्पष्ट हो जाता है। नायिका अपनी काम-पीड़ा की बात कह नहीं पाती है । छं० नं० ११३ दृग-जलधि= नेत्र-समुद्र। बरुनि-मूल-बेला=आँखों की बिरुनियों का उद्गम-स्थान- रूप समुद्र-तट । दोहे का भाव यह है कि जैसे समुद्र-जल बेला के आगे नहीं बढ़ता है वैसे ही मुग्धा के आँसू पलकों तक आकर रह जाते हैं। आँसुओं को इस प्रकार से प्रकट न होने देने से मुग्धत्व स्पष्ट हो जाता है। छं० नं० ११४ दगतु=जलती है । उसिर- उषीरताप-निवारक शीतल द्रव्य ।