सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०४ मतिराम-ग्रंथावली मेरे तन के रोम ये, मेरे नहीं निदान ।। उठि आदरु आगम करें, करौं कौन बिधि मान ॥२३३॥ . अधमा-नायिका-लक्षण पिय सौं हितहू के किये, करे मान जो बाल । तासौं अधमा कहत हैं, कबि 'मतिराम' रसाल ॥२३४।। आयो है सयानपन गयो है अयान मन, नित उठि मान करबे की टेव पकरी; घर-घर माननी हैं मानतीं मनाए तें वै, तेरी ऐसी रीति और काह मैं न जकरी । कबि 'मतिराम' कामरूप घनस्याम लाल, तेरी नैन-कोर ओर चाहें इकटक री; हाहा के निहोरे हू न हेरति हरिननैनी ! काहे को करत हठ हारिल की लकरी ॥२३॥ कहा लियो गुरुमान को अति ताती है नेम ।। पारद-सो उड़ि जायगो अलि ! चंचल यह प्रेम ॥२३६।। १ मेरोहि नहीं, २ अनहित माने, ३ अजान, ४ हु न करी, ५ अंतर । - छं० नं० २३३ मेरे तन के रोम "बिधि मान=मान कैसे किया जाय, शरीर के रोंगटे पहले से ही खड़े होकर आगत-स्वागत करने लगते हैं। हो सकता है कि मेरे शरीर के यह बाल मेरे न हों। छं० नं० २३५ गयो है अयान मन=मन का अज्ञान मिट गया है। जकरी जकड़ी, और कोई ऐसी बातों में नहीं जकड़ा है। हारिल की लकरी-हारिल एक पक्षी होता है। उसके संबंध में प्रसिद्ध है: कि वह एक बार जिस लकड़ी को अपने पंजा में दबा लेता है उसे फिर नहीं छोड़ता है। छं० नं० २३६ कहा लियो गुरुमान... प्रेम=यह चंचल प्रेम पारद (पारा) के समान है अगर गुरुमान का आश्रय देकर गरम पड़ोगी तो यह उड़ जायगा।