मतिराम-ग्रंथावली उदाहरण मोते तो कछ न अपराध परयो' प्रानप्यारी ! मान करि रही यौँ ही काहे को अरस तैं ? लोचन-चकोर मेरे सीतल हैं होत तेरे, अरुन कपोल मुखचंद के दरस तैं। कहै 'मतिराम' उठि लागु उर मेरे किन, करत कठोर मन अँसुवा-बरस तैं; कोप से कटक बोल बोलते हैं तऊ मोकौं, . __मीठे होत अधर-सुधारस-परस तें ॥२५॥ पियत रहैं अधरान को रस अति मधुर अमोल । तातें मीठे कढ़त हैं बाल-बदन तें बोल ॥२५२॥ धृष्ट-नायक-लक्षण करै दोष निरसंक जो, डरे न तिय के मान । लाज धरै मन मैं नहीं, नायक-धृष्ट निदान ॥२५३॥ उदाहरण बरज्यो न मानत हो बार-बार बरज्यो मैं, कौन काम, मेरे इत भौन मैं न आइए; लाज को न लेस, जग हाँसी को न डर मन, हँसत-हँसत आन बात न बनाइए। १ भयो, २ कठोर, ३ बहु । छं० नं० २५१ अरस तै=रस छोड़कर । मीठे होत अधर परस त=यद्यपि तुम कटु वचन कहती हो पर जब वे तुम्हारे मुख से निकलते हैं तो उनका स्पर्श तुम्हारे अधरों से हो जाता है । अधर मीठे हैं इसलिये वचनों में भी स्पर्शजात मधुरता आ जाती है इसलिये वे मुझे मधुर गते हैं। छं० नं० २५२ का भी यही भाव है।
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