सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३२२ मतिराम-ग्रंथावाली सात्त्विक-भाव ते अनुभावै जानियो जे हैं सात्त्विक भाव । रसग्रंथनि अवलोकि कैं, बरनत सब कबिराव ॥३१३॥ स्तंभ, स्वेद, रोमांच, सुर-भंग, कंप, बैबर्ण । आँसू औरौ प्रलय कहि, आठौं ग्रंथन वर्ण ॥३१४॥ स्तंभ-लक्षण लज्जा, हर्षादिकन तैं अचल होत जहँ अंग। . स्तंभ कहत हैं ताहिको जे प्रबीन रस-रंग ॥३१५॥ उदाहरण देखत ही 'मतिराम' रसाल गही मति प्यारी की प्रेमन गाढ़ी; चाहिबे की चितचाह भई हिय तै कुलकानि न जाति है काढ़ी' । संग सखीन को जानि दुरावति, आनन आनंद की रुचि बाढ़ी; पाइँ परे मग मैन मरूकै भई मिस लाजन के फिर ठाढ़ी ॥ ३१६॥ पाय इकंत निकुंज मैं भरी अंक ब्रजनाथ । रोकन कौं तिय करति पै कह्यौ करत नहिं हाथ ॥३१७॥ स्वेद-लक्षण हरष, लाज, भय, कोप, स्रम इत्यादिक तें होय । पानी परगट देह मैं, स्वेद कहावत सोय ॥३१८॥ उदाहरण किंकिनि नेवर की झनकारनि चारु पसार महारस जालहि; काम कलोलनि मैं 'मतिराम' कलानि निहाल कियो नंदलालहि । १ पै गई हिय तें कुलकानि न काढ़ी, २ भटू सु।