३२४ मतिराम-ग्रंथावली ललित ललाम' स्याम रसिक रसाल को कदंब मूकूलित के कूलनि सो करति है ॥३२२॥ जौन अंग ढिंग है कढ़ी, छई छैल की छाँह ।। अजहूँ लौ अवलोकिए, पुलक पटलता' ताह ॥३२३॥ स्वरभंग-लक्षण क्रोध, हर्ष, मद, भीति से बचन और बिधि होय । ताहि कहत स्वरभंग हैं कबि कोबिद सब कोय ॥३२४॥ उदाहरण ताहि लै आई अली रतिमंदिर जाकी लगै रति हूँ परछाँहीं; आय गयो ‘मतिराम' तहीं जिन कोटिन काम कला अवगाँहीं। देखत ही सगरी डगरी, पकरी हँसि के तिय की पिय बाँहीं; लाज नि तें मति मंद भई, सुकढ़ी मुखचंद मरू करि नाहीं।। ३२५॥ कहा जनावति चातुरी, कहा चढ़ावति भौंह ? अधनिकरे अखरान सौं, सौहें कीजै सौंह ॥३२६॥ १ तमाल, २ पलक न पलटी, ३ लाज नई सुरगंग भई। छं० नं० ३२२ अद्भुत की कलानि आचरति है=अद्भुत बातों का प्रयोग करती है । ललित ललाम सो करति है-रसिक प्रवर संदर श्री- कृष्णचंद्र को कंटकित कदंब के समान कर देती है। तात्पर्य यह कि नायिका के कटाक्षपात से श्रीकृष्ण का शरीर रोमांचित हो जाता है। छं० नं० ३२३ पटलता=अधिकता, पुलक रोमांचाधिक्य । छं० नं० ३२५ सगरी डगरी=सब सखियाँ भाग गईं। कढ़ी मरू करि नाहीं- कठिनता से नहीं कहा।
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