पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३७६

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SURE Sta ३७२ मतिराम-ग्रंथावली । फैलि रही ‘मतिराम' जहाँ तहाँ दीपति दीपनि की परभा है ; लाल तिहारे मिलाप कौं बाल सु आज करी दिन ही मैं निसा है ॥ १०७ ॥ असिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा उदाहरण मनौ भजी अरि तियनि कौं पकरन जो दृढ़ दाप । भावसिंह को दिसनि मैं फैलत प्रबल प्रताप ॥ १०८॥ गुप्तोत्प्रेक्षा-लक्षण उत्प्रेक्षा बाचक जहाँ, शब्द कह्यो नहिं होय । गुप्तोत्प्रेक्षा कहत हैं, तहाँ सुकबि सब कोय ॥ १०९ ॥ उदाहरण बाल रही इकटक निरखि ललित लालमुखइंदु । रीझ भार अखियाँ थकी, झलके श्रमजलबिंदु ॥ ११० ॥ रूपकातिशयोक्ति-लक्षण जहँ केवल उपमान ते प्रगट होत उपमेय । रूपकातिशयउक्ति तहँ बरनत सुकबि अजेय ॥ १११ ॥ उदाहरण इंद्रजाल कंदर्प को गहै कहा 'मतिराम' । आगि लपट वर्षा करै, ताप धरै घनस्याम ॥ ११२ ॥ चलौ लाल या बाग मैं, लखौ अपूरब केलि । आलबाल घन समय को, ग्रीषम ऋतु की बेलि ॥ ११३ ॥ छं० नं० ११२ काम-देव के खेल इंद्रजाल-कैसे हैं। अग्नि की लपट (विरहानल) से वर्षा होती है (अश्रुप्रवाह) और घनश्याम (बादल, कृष्ण) से संताप (विरह ताप) होता है । छं० नं० ११३ आलबाल=थाल्हा ।