पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४४०

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मतिराम-ग्रंथावली

साँचा:Poem being≤poem≥ दसा सुने निज' बाग की, लाल मानिहो झूठ । पावस रितु हँ में लखें, डाढ़े ठाढ़े ठठ ॥५३॥ तरनि-किरनि झलमलित मुख,लाली ललितकपोल । प्यास लगावति दृगनि में, प्यासी बाल अमोल ॥५४॥ लाल तिहारे संग में, खेले खेल बलाइ। मदत मेरे नैन हो, करनि कपूर लगाइ ॥५५।।* खेलत चोरमिहीचनी, परे प्रेम पहिचानि । जानी प्रगटत परस तें, तिय लोचन पिय पानि ॥५६॥ खेलत खेल सखीनि में, उतै धरि अवगाहि। पलक न लागत एक पल, इत नाह मुख चाहि ॥५७।। निडर बटोही बाट में, ऊखनि लेत उखारि। अरे गरीब गँवार तें, काहे करत उजारि ॥५॥ मेरे सिर कैसी लगै, यों कहि बाँधी पाग। संदरि रति बिपरीत में, प्रगट कियो अनुराग ॥५९॥ नहिं सुहाइ परगोत है, गोत आपनो पाइ। बिदा करी कुल-कानि की, नैननि नैन बसाइ ॥६०॥ ग्रीषम हूँ रितु मैं भरी, दुहँ कल पैराउ। खारे जल की बहति है, नदी तिहारे गाउ ॥६॥ हियो हिए सों मिलि चल्यो, नैन चले मिलि नैन । इतै उतै मारी फिर, लाज कहूँ ठहरे न ॥६२॥ बसिबे कों निज सरबरनि, सुर जाको ललचाहि । सो मराल बक-ताल में, पैठन पावत नाहि ॥६३।। KERS D Sabs छं० नं० ५३ विरहताप की गर्मी से बरसात में भी वृक्ष झुलसे खड़े हैं । छं० नं० ६१ विरह के आँसुओं से परिपुष्ट नदी बह रही है इसी लिये उसका जल खारा है।

  • दे० रसराज उ० अज्ञातयौवना ।

दे० रसराज उ० लीला-हाव । onore CHANDMERefronts