। P ४४६ मतिराम-ग्रंथावली R ORSMONTRIER । निसि-दिन निंदति नंद है, छिन-छिन सासु रिसाति। प्रथम भए सुत को बहू, अंकहि लेति लजाति ॥१५६॥ कुसुम खेत को खेद सब, कहत तिहारो रूप। ऊँची लेत उसास तन, स्रम-जल-कलित अनप ॥१५७॥ बाँचत कुसुम कुसुंभ के, रहे लागि अभिराम । कंटक छत छतियाँ छपै, क्यों न छपावति बाम ॥१५८॥ जानति हौं वा खेत सों, आई बीन कुसुंभ । कलित कंटकनि कायकूल, कुसुम कलित कुच कुंभ ॥१५९॥ जानति खेत कुसुंभ के, तेरी प्रीति अमोल । चुभत करनि कंटकनि तौ, कत कंटकित कपोल ॥१६०॥ अब तेरो बसिबो इहाँ, नाहिंन उचित मराल । सकल सूखि पानिप गयो, भयो, पंकमय ताल ॥१६१॥ तिय पग पिय अँगुरी परसि, भो उर आनंद-खानि । कह्यो सु परि पिय पीठि पर, सुधा-सीत अँसुवानि ॥१६२॥ बिछरत रोवत दुहनि की, सखि यह बात' लखै न । दुख अँसुवा पिय नैन में', सुख अंसुआ तिय नैन ॥१६३॥* पग परिबो मुरि बेठिबो, यहै तिहारे काज । तुम्हें मनावन की नई, इहै मान की लाज ॥१६४॥ परसत ही याकी भई, तन कदंब की माल। रह्यौ कहा परि पगनि में, क्यों न अंक भरि लाल ॥१६५।। १ रूप, २ हैं। छं० नं० १५६ भावार्थ-बहू के प्रथम सुत उत्पन्न हुआ है । उसको गोदी में लेकर खेलाने में उसे लज्जा प्रतीत होती है यद्यपि इसके कारण ननंद उसकी बराबर निंदा करती रहती है और सास डाँटा करती है। इस भाव पर हिंदी के और कवियों की रचना देखने में नहीं आई है । छं० नं० १५८ बाँचत कुसुम कुसुंभ के =कुसुम के खेत में फूल चुनते हुए।
- दे० रसराज उ० मुदिता।
Martinentatvaynilaiac hanaiainik