पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४५३

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मतिराम-सतसई ४४९ दुख दीने हूँ सुजन जन, छोड़त निज न सुदेस । अगरु डारियत आगि में, करत सुबासित केस ॥१८॥ तू राखी करि लाल है, निज उर में बनमाल । नै राख्यो करि लाल है, कंठमाल को लाल ॥१८६॥* जग जोन्ह की जोति यों, छपै जलद की छाँह । मनो छीरनिधि की उठे, लहरि-छहरि छित माह ॥१८७॥ अभिनव जोबन जोति सों, जगमग होत बिलास । तिय के तन पानिप बढे, पिय के नैननि प्यास ॥१८८।।। बासन को पानिप घटयौ, तन पानिप की आस । मिटी पथिक की बदन तें, लगी दुगनि मैं प्यास ।।१८९॥ दिनकर-तनया स्याम जल, द्वै घट भरे बनाइ। ताके भर गरुए भए, हरयें धारति पाइ ॥१९॥ चलत सुन्यो परदेस कों, हियरो रह्यो न ठौर । लै मालिनि मी तिहिं दियो, नव रसाल कौ मौर ।।१९१२ प्यो राख्यो परदेस तें, करामात अधिकाइ। कनक कलस पानिप भरे, सगुन उरोज दिखाइ ॥१९२॥X सुन्यो माइके तें बह', आयो बाभन कंत। कुसल पूछिबे के मिसनि, लीनो बोल इकंत ॥१९३॥+ । १ जबहि। छं० नं० १९० दिनकर-तनया=यमुना । हरयें-हरुए=धीरे । भर=भार, बोझा।

  • दे० रसराज ।

+दे० रसराज उ० मुग्धा तथा ललितललाम उ० तुल्ययोगिता। दे० रसराज उ० परकीया प्रवत्स्यत्प्रेयसी । x दे० ललितललाम उ० विशेयोक्ति । +दे० रसराज उ० परकीया आगतपतिका ।