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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४७७

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मतिराम-ग्रंथावली

मतिराम-सतसई ललित राग रंजित हियो, नायक जोति बिसाल । बाल तिहारे कूचनि बिच, लसत अमोलिक लाल ॥४१२।।* कहा भयो जग में बिहित, भए उदित छबि लाल । तो ओठनि की रुचिर रुचि, पावत नहीं प्रबाल ॥४१३॥ प्रगट कुटिलता जो करी, हम पर स्याम सरोस । मधूप जोग बिख उगिलियै, कछ न तिहारो दोस ।।४१४॥ हसत बाल के बदन में, यों छबि कछ अतूल। फूली चंपक बेलि तें, झरत चमेली फूल ॥४१५॥+ भयो सिंधु ते बिधु सुकबि, बरनत सुमति बिचार। उपज्यौ तो मुख इंदु ते, प्रेम-पयोधि अपार ॥४१६॥x पियत रहत पिय नैन यह, तेरी मृदु मुसिक्यानि । तऊ न होत मयंक-मुखि, तनक प्यास की हानि ॥४१७॥= पिय नैननि के राग कौं, भूषन सजे बनाइ। निरखि तिहारी छबि सुतौ, सौति दृगनि सरसाइ॥४१८॥- उदै भयो है जलद तू, जग को जीवन-दान । मेरो जीवन हरतु है, कौन बैर मन मान ॥४१९॥ १ बिना, २ लखें। छं० नं० ४१३ प्रबाल=मूंगा।

  • दे० ललितललाम श्लेष।

+दे० ललितललाम उ० श्लेष ।

  • दे० ललितललाम उ० ब्याजनिंदा ।

x दे० ललितललाम उ० चतुर्थ विभावना । +दे० ललितललाम उ० छठी विभावना। =दे० ललितललाम उ० विशेषोक्ति । -दे० ललितललाम उ० द्वितीय असंगति । ६ दे० ललितललाम उ० असंगति । Sta