पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४८२

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A R ४७८ SENTENINRAINNIENDSHISHIRTERASHANTORRENOUNS Simindian मतिराम-ग्रन्थावली प्रेम लग्यो अंगार है, सीता मन बिन ज्ञान । देत अँगूठी राम की, मानिक भो हनुमान ॥४५१॥ रहै और ही रूप वै, बिषम बिरह दुख सानि । डीठि परे हूँ परसपर, नीठि पर पहिचानि ॥४५२।। मोही को किन मार तू, बिरह बिपति में गाड़ि। जलज-मूखी कौ जलद जिन, तड़ित चाबुकनि ताडि ॥४५३।। अजहूँ प्रगटित होत है, पुलक पटलता माँह । जौन अंग डिढ़ कै कढ़त, छ हौ छैल की छाँह ॥४५४॥ सिरिस कुसुम सम बाल के, कुम्हिलाने सब गात । करत प्रात अलसात अति, सौति हियनि उतपात ॥४५५। प्रतिपालक सेवक सकल, पलन दलमलत डाँटि । संकर तुम सब साँकरे, सबल साँकरें काटि ॥४५६॥ सेवक सेवा के सुनें, सेवा देव अनेक। दीनबंधु हरि जगत है, दीनबंधु हर एक ॥४५७॥ सघन तिमिरि में तरुनि की, जगमगाति तन जोति । प्रेम हेम, पावस कुह, निसा कसौटी होति ॥४५८॥ रूप बैस मदिरा मदन, मदन मदरि से नैन । प्रेम छके पिय छबि छके, हटके नैक रहैं न ॥४५९॥ पिय मुख रुचि चारो चुर्ण करत परस्पर चैन । मदन मदर से बाल के, बदन मदरि से नैन ॥४६०॥ मदन इंदु अरबिंदु सों, सुधा सधुर मधु बैन । मेरे होत चकोर-से, चंचरीक-से नैन ॥४६१॥ Diseadlinesirinsidenti छं० नं० ४५६ साँकरे संकट में । साँकरै जंजीरें, बंधन । छं० नं० ४५८ भावार्थ-घोर अंधकार में तरुणी के शरीर की जग- मगाहट देखकर ऐसा जान पड़ता है कि बरसात की अमावस रात को कसौटी का पत्थर बनाकर उस पर प्रेम रूपी सोना कसा जाता है ।