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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४८९

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मतिराम-सतसई ४८५ अब फिरि आवत है नहीं, मो तन जीवन हीन । तो तन पानिप रूप में मो मन रूप बिलीन ॥५२८॥ भई देवता-भाव वह', हौं तुमको बलि जाउँ । वाही को मुख रूप मन, वाही को मुख नाउँ ॥५२९॥* कहै चीर के चोर सों, बातें भौंह चढ़ाइ। लखें परस्पर गोपिका, आपुस मैं मुसिक्याइ ॥५३०॥ बिसरि जात सब दुख सखी, मन में आनत जाहि । अवलोकन पैयत नहीं, अवलोकनि सो ताहि ॥५३१॥ करियै संग सखीनि के, कहौ कौन बिधि सैल । अलि रोकत मग बास में, छैल गाँउ मैं गैल ||५३२।। सिला सघन घनस्याम उर, तिय कुच सैल कठोर । मुकत हार दुरि जात हैं, परिरंभन के जोर ॥५३३।। लगी रहै हरि हिय इहै, करि ईरखा विसाल। परिरंभन में बल्लवी, भली दली बनमाल ।।५३४॥ अधम अजामिल आदि जे, हाँ तिनको हौं राउ। मोह पर कीजै मया, कान्ह दया-दरियाउ॥५३५॥ लसति दान की ज्योति यों, बाल बदन मुसिक्यात। अमल किंजलक झलक ज्यों, कमल प्रफुल्लित प्रात ॥५३६॥ मिलि बिसरे हो आपु कौ, सुमिरत सुधि न सँभार। किंकिन कौ उर हार करि, करिहो कहा बिहार ॥५३७॥ अधर रंग बेसरि मुकत, मानिक बानिक लेत। हँसत बदन दीपति बहुरि, होति हीर छबि सेत ॥५३८॥ १ सब, २ वह, ३ मन ध्यान है। छं० नं० ५३० चीर के चोर=चीर हरण करनेवाले कृष्ण । छं० नं० ५.३२ सैल=सैर। छं० नं० ५३४ बल्लवी=गोपी । छं० नं० ५.३६ किंजलक=केसर।

  • दे० रसराज उ० मध्यम-मान ।