पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४९१
मतिराम-सतसई

मतिराम-सतसई ४९१ दिसि-दिसि तुम्हें बिलोकि वह, बालतजतिअतिसोक । तो प्रतिबिंबित सहित सब, भयो मुकुर नप लोक ॥५९२।। कीनो अति अनुराग सों, पीतम आधे रूप। मनो लिए गुन गौरि तें, गुन गौरितें अनूप ॥४९३॥ जे अंगनि पिय संग में, बरखत हुते पियूष । ते बीछ के डंक-से, भए मयंक मयूष ॥५९४॥ जाहि चाहि उद्दिम कियो, गने न निसि मग-डाभ। कंत बिकान्यो अनत सो, रह्यो अजस को लाभ ॥५९५।। मनमोहन तो सकत क्यों, यों अपराधनि ठानि । जो न मनावन हेतु यह, होति मधुर मुसिक्यानि ॥५९६॥ पियहि उठावति पगनि तें, क्यों न कौन यह ग्यान । दुख सागर में बूड़िहै, बाँधि गरे गुरु मान ॥५९७॥ जो सजनी गुनगननि बस, अति सनेह रस मानि । भयो दास तब सो लखै, अब उदास अँखियानि ॥५९८॥ सनि सजनी वह साँवरी, धरि गजनि के हार। राखतु है हिय आपुनो, तो सनेह घनसार ॥५९९।। अनिल यह अनल अनंग कौ, अंग-अंग अधिकात। क्यों धौं चंचल प्रान ए, पारद लौं न उड़ात ॥६००॥ कहा लियौ गरु मान कौ, अति ताती है नेम। पारद सो उडि जाइगौ, अलि चंचल यह' प्रेम ॥६०१॥ छं० नं० ५९२ मुकुर शीशा । छं० नं० ५९५ मग-डाभ =मार्ग के कुश-कंटक आदि ।

  • दे० रसराज उ० उद्वग ।

+दे० रसराज उ० मान।

  • दे० रसराज उ० अधमा नायिका ।