पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/५

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परिचय

स्तुत ग्रंथ 'मतिराम-ग्रंथावली' पं० कृष्णविहारीजी मिश्र की वह महती कृति है, जिसके प्रकाशन के पश्चात् मिश्रजी की गणना हिंदी के अग्रणी समालोचकों में की जाने लगी थी। इस ग्रंथ में मिश्रजी मतिराम की लुप्त सतसई सर्वप्रथम प्रकाश में लाए थे। इस ग्रंथावली की पांडित्य-पूर्ण भूमिका हिंदी के प्राचीन साहित्य की समालोचना के मार्ग में आज भी पथ-प्रदर्शन का काम कर रही है। इस भूमिका की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसमें एक बँधी-बँधाई परिपाटी पर हीं कवि की आलोचना नहीं की गई, वरन् इसमें आलोचना के कुछ नवीन आदर्श स्थापित किए गए हैं। इसमें मिश्रजी ने किसी बँधी हुई रीति या नियमावली के आधार पर काव्य के गुण-दोष बतलाने की अपेक्षा आलोच्य कृति द्वारा ही कवि की अंतरात्मा में प्रवेश कर उसके भावों को व्यवस्थित रूप में उपस्थित करना अपना मुख्य ध्येय समझा है। इसमें वे केवल यह निर्णय देकर ही संतुष्ट नहीं हुए कि अमुक रचना में कितना नीर है और कितना क्षीर, वरन् इसके नीर और क्षीर को उन्होंने चखकर भी देखा है, उसके स्वाद का भी वर्णन किया है, जिससे रसास्वादन के साथ-साथ कवि को समझने में भी सहायता मिली है। वास्तव में प्रस्तुत भूमिका में मिश्रजी ने सभी प्रकार की प्रचलित समालोचनाओं का समावेश किया है। नीर-क्षीर को पृथक् कर उसके रसास्वादन का प्रयास व्याख्यात्मक (Inductive) आलोचना द्वारा किया गया है। तुलसी, सूर, केशव, रहीम, नरहरि, रसखान, बिहारी, आलम, भूषण, देव, दास, तोष, रघुनाथ, पद्माकर, रवींद्रनाथ आदि