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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/५०२

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मतिराम-ग्रंथावली

बिरह तचे तिय-कचनि लों, अँसुवा सकत न आइ।
गिरि उड़गन ज्यों गगन तें, बीचहि जात बिलाइ ॥६६६।।
स्याम तिहारे बिरह दृग, करत सकज्जल रोज ।
मनों बढ़ावत प्रेम सों, सूरसूताहि सरोज ॥६६७।।
छाँह बिना ज्यों जेठ-रबि, ज्यों बिन औषधि रोग ।
ज्यों बिन पानी प्यास, यों, तेरो दुसह बियोग ।।६६८।।
मो दृग कंजनि को दियो, दरपतु मोद निदानु ।
भोगनाथ मन भाँवते, भए भोर के भानु ॥६६९।।
भोगनाथ नरनाथ कौ, बदन इंदु अरबिंदु।
करत कबित्तनि करत बर, मधुर सुधा मधु बिंदु ॥६७०॥
कमल मुखनि कुबलय दृगनि, कुमुद मधुर मुसिक्यानि ।
लखौ लाल ऊपर महल, कमलाकर सुखदानि ॥६७१।।
तब लों नहिं जानति दुगनि, जब लों नहीं उदोति।।
बिहसन छीर मिठासमय, मठा चंद की जोति ॥६७२।।
जब-जब तेरी बाल के, चित्त चढ़ मुसिक्यानि।
अधर कपोल बिलोचननि, तब दग झलकति आनि ॥६७३।।
बासर मैं रबि हा तहीं, जामें निरखत भौंह ।
सुनो लाल ता प्रेम के, परी आइ बिच सौंह ॥६७४।।
कपट बचन अपराध तें, निपट अधिक सुखदानि ।
जरे अंग में संकु ज्यों, होत बिथा की खानि ।।६७५।।
लाल तिहारे बिरह नित, छीन बाल के अंग ।
जानति हों चाहति दियो, निज सायुज्य अनंग ॥६७६॥


छं० नं० ६६६ आकाशमंडल से उल्कापात होता है पर प्रायः उल्कागण बीच में ही नष्ट हो जाते हैं। उसी प्रकार से विरह-संतप्त नायिका के आँसू गिरते हैं पर कुचों तक पहुँचने के पूर्व ही नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि संतप्त कुचों की गरमी इतनी प्रबल है कि अपने पास पहुँचने के पूर्व ही अश्रुजल नष्ट कर देती है छ० नं० ६७६ संकु=बर्थी ।