पति विदेश चला गया। नायिका-प्रोषितभर्तृका हो गई। अब तो उसके नेत्रों की यही दशा है कि—
"पिय-बियोग तिय-दृग-जलधि, जल-तरंग अधिकाय;
बरुनि-मूल-बेला परसि बहुरयो जात बिलाय।"
पति विदेश से लौट आया है। मुग्धा सुंदरी आगतपतिका हो रही है। आनंद की सीमा नहीं है—
पिय आयो, नव बाल-तन बाढ़यो हरख-बिलास;
प्रथम बारि बूंदन उठै, ज्यों बसुमती सुबास।
स्वकीयांतर्गत मुग्धा के अतिरिक्त मध्या और प्रौढ़ा-नामक दो और भेद हैं। मध्या में लज्जा और काम बराबर-बराबर होता है। प्रौढ़ा तो अखिल काम-कला-चतुर होती है। इन दोनो प्रकार की नायिकाओं में भी ऊपर-दर्शित दसो भेद पाए जाते हैं। इतना ही नहीं, धीरा, धीराधीरा और अधीरा आदि कई भेद मध्या और प्रौढ़ा में अधिक होते हैं। परकीया में भी ऊपरवाली दसो प्रकार की नायिकाएं मानी गई हैं। इसके अतिरिक्त ऊढ़ा, अनूढ़ा, गुप्ता, विदग्धा, लक्षिता, कुलटा, मुदिता और अनुशयाना-नामक कई प्रकार की नायिकाओं का सूक्ष्म वर्णन पाया जाता है। ऊपरवाला दस प्रकार की नायिकाओं का क्रम गणिका में भी बाँधा गया है। इसके अतिरिक्त अन्यसंभोगदुःखिता, प्रेम तथा रूपविता-नामक नायिकाओं का उल्लेख भी रसराज में है। एक ही पुरुष की दो ब्याही स्त्रियों में जिस पर प्रीति विशेष हो, वह ज्येष्ठा और दूसरी कनिष्ठा कहलाती है। यह भेद-क्रम स्वकीया के अंतर्गत है। स्वकीया भी उत्तम, मध्यम और अधम प्रकार की मानी गई है। उत्तमा पति-कृत हित या अहित की परवा न करके सदा पति का हित ही करती है। मध्यमा पति के हित का बदला तो हित में देती है; परंतु अहित का जवाब उसके पास मान में है। अधमा विना कारण ही मान करती है। मान करनेवाली