विरहावस्था में नायिका जब अपने प्रियतम के रूप की सराहना
आदि करती है, तो उसे गुण-कथन कहते हैं । इस गुण-कथन का जीता-
जागता चित्र निम्नलिखित छंद में वर्तमान है-
"मोरपखा 'मतिराम' किरीट मैं, कंठ बनी बनमाल सुहाई;
मोहन की मुसकानि मनोहर, कुंडल डोलनि मैं छबि छाई ।
लोचन लोल, बिसाल बिलोकनि को न बिलोकि भयो बस माई?
वा मुख की मधुराई कहा कहौं ? मीठी लगै अँखियान-लुनाई।"
नेत्रों के अश्रु खारी होते हैं-उनमें लुनाई रहती है, पर नायिका को यह 'लुनाई मीठी लगती है । प्रेमाधिक्य से प्रियतम की बुरी चीज़ भी अच्छी लगती है । सो लुनाई भी मिठाई हो रही है । जब लुनाई में ही मिठाई मिल रही है, तब मुख की मिठाई का क्या कहना। उसमें तो मिठाई पहले से ही थी।
(ख) विरह की व्याकुलता में जब नायिका को कुछ भी अच्छा नहीं लगता, तब उस अवस्था को उद्वेग-दशा कहते हैं। संयोगावस्था में उद्दीपन विभाव-रूप सुधाकर दंपति के लिये पीयूषवर्षी था; परंतु आज इस विरह-विधुरा नायिका को उसी के मयूख बिच्छू के डंक के समान डंस रहे हैं। मतिरामजी की कैसी सुष्ठु योजना है-
“जे अंगनि पिय-संग मैं बरसत हुते पियूख,
ते बीछ के डंक-से भए मयंक-मयूख ।"
विरह-वश इष्ट-अनिष्ट के विषय में कर्तव्य-विमूढ़ता तथा चित्त और अंगों का अचल हो जाना नायिका की जड़ता-दशा का प्रदर्शक है । इस दशा का वर्णन मतिरामजी यों करते हैं-
"सँधै न सुबास, रहै राग-रंग ते उदास,
भूलि गई, सुरति सकल खान-पान की;
कवि 'मतिराम' इकटक अनमिस नैन,
बूझे न कहति बैन, समुझे न आन की।