(४) "ह्राँ मिलि मोहन सों 'मतिराम' सुकेलि करी अति आनंदवारी;
तेई लता-द्रुम देखत दुःख चले अँसुवा अँखियान ते भारी।
आवति हौं जमुना-जल को नहिं जानि परै बिछुरें गिरधारी;
जानति हौं सखि, आवन चाहत कुंजन ते कढ़ि कुंजबिहारी।"
(५) "कोउ नहिं बरजै 'मतिराम', रहौ तितही, जितही मन भायो;
काहे को सौ हैं हजार करो, तुम तौ कबहूँ अपराध न ठायो।
सोवन दीजै, न दीजै हमै दुख, यों ही कहा रसबाद बढ़ायो;
मान रह्योई नहीं मनमोहन, मानिनी होय, सो मनै मनायो।"
उपयुक्त छंदों में जो साहित्य-चमत्कार भरा हुआ है, वह सर्वत्र सहज सुलभ नहीं है। इन सबके अंतिम पद तो इतने मनोहर हैं कि बस, मतिराम की लेखनी चूम लेने की इच्छा होती है। कुछ पद अथवा पद्यांश और लीजिए—
(६) "तै बरने निज बैननि सों सखि! मैं निज नैननि सों मनु देखे।"
(७) "सौतुक सा सपनो भयो, सपनो सौतिक रूप।"
(८) "और भटू न भई कुछ बात, गई इतने ही मैं नींद निगोड़ी।"
(९) "कौन तिन्हैं दुख है, जिनके तुम-से मन-भावन छैल छबीले?"
(१०) "कोऊ कितेक उपाय करौ, कहूँ होत हैं आपने पीव पराए।"
इन पद्यांशों में जो सरसता भरी हुई है, उसके साक्षी सहृदयों के हृदय ही हैं।
(११) "दारिद-दैत्य-बिदारिबे को भई भाऊ दिवान की रीझ भवानी।"
(१२) "सत्ता के सपूत राजऋषि भावसिंह कीन्हो
आपने चरित्रनि प्रगट रूप राम को।"
(१३) "कहा चतुराई ठानियतु प्रानप्यारी, तेरो
मान जानियत रूखी मुख-मुसकानि सों।"
(१४) "सकल जगति पानिप रह्यो बूंदी मैं ठहराय।"