सुंदर सिंदुर-मंडित कुंभनि गैरिक सृंग उतंग लसे हैं;
भाउ दिवान उदार अपार सजीव पहार करी बकसे हैं।"
(२) पावस-ऋतु में विरह-पीड़िता वियोगिनियों को बहलाते समय सखियाँ बड़ी चतुराई से कहती हैं कि तुम सामने जिनको मेघ (उद्दीपन विभाव) समझकर और भी विकल हो रही हो. वे वास्तव में मेघ नहीं, बल्कि रावराजा भाऊसिंहजी के दिए हुए हाथियों का समूह है। वियोगिनियाँ पूछ सकती हैं—"फिर यह इद्र-धनुष कैसा? बक पंक्ति कैसी? और, वर्षा काल में ही सुलभ यह गंभीर गर्जन कैसा?" सखियाँ इन प्रश्नों का भी समाधान बड़ी खूबी से करती हैं। वे कहती हैं—"जिन बहुमूल्य जवाहरात से गजों के शरीर सजाए गए हैं, उन्हीं की विविध-वर्ण ज्योति से इंद्र-धनुष का भ्रम होता है। वैसे ही लंबे-लंबे और श्वेत गज-दंतों की अवलियाँ 'बक-पंक्ति' का भाव उत्पन्न करती हैं। दुंदुभी का शब्द ही घोर घन-गर्जन के अनुरूप समझ पड़ता है। स्वयं कवि के शब्दों में सुनिए—
"पावस-भीत बियोगिनी बालनि यों समुझाय सखी सुख साजै;
जोति जवाहिर की 'मतिराम', नहीं सुर-चाप छिनौं छबि छाजैं।
दंत लसैं, बक पाँति नहों, धुनि दुंदुभी की न, घने धन गाजैं;
रीझिकै भाऊ नरिंद दिए कबिराजनि के गजराज बिराजैं।"
उल्लिखित छंद में वास्तविक पावस-ऋतु को छिपाकर हाथियों का वर्णन होने से छेकापह्नुति-अलंकार स्पष्ट है।
(३) बूंदी-नरेश रावराजा भाऊसिंह उदार पुरुष थे, यह बूंदी के इतिहास द्वारा बिल्कुल स्पष्ट है। समय-समय पर उन्होंने जी खोलकर दान दिए, यह भी इतिहास-प्रेमियों को विदित ही है। गज-दान का महत्त्व भारतीय नरेशों को ही विदित है। शायद बूंदी के राजघराने के समय गज-दान करने का सौभाग्य तत्कालीन दिल्ली-श्वर को छोड़कर और किसी भी राजघराने को उस समय नहीं प्राप्त