होता है - ( १७६ ) वेदी भी होती है। दोनों शैली के मंदिरों में गर्भगृह के ऊपर शिखर और उसके सर्वोच्च भाग पर ग्रामलक नाम का बड़ा चक्र आमलक के ऊपर फलश रहता है, और वही ध्वज- दंड भी होता है द्रविड़ शैली के कुछ मंदिरों में, जहां मुख्य मूर्ति स्थापित हाती है उसके ऊपर, चतुरन्न प्राकृति का विमान नागक कई मंजिलों का ऊँचा मंडप रहता है। वह ज्यों ज्या ऊँचा होता जाता है, त्या त्या उसका फैलाव कम होता जाता है और ऊपर जाकर छोटा सा रद जाता है। वस्तुतः इस विमान का ऊपरी विभाग चतुरस्र शंकु जैसी आकृति का होता है। इन विमानों को आर्य-शैली के मंदिरों के शिखर के स्थानापन्न समझना चाहिए। गर्भगृह के आगे मंडप या अनेक स्तंभोंवाले विस्तृत स्थान होते हैं और मंदिर के प्राकार के एक या अधिक द्वारों पर एक बहुत ऊँचा अनेक देवी देवताओं की मूर्ति- वाला गोपुर रहता है जिसे 'कोयल' कहते हैं। उत्तरी भारत में पुष्कर वृंदावन आदि तीर्थ स्थानों में रंगजी आदि के नए बने हुए मंदिर ठोक द्रविड़ शैली के हैं। दक्षिण के पूर्वी और पश्चिमी सोलंकी राजाओं के समय के बने हुए देवमंदिर बहुधा द्रविड़ शैली के हैं, परंतु उनमें उक्त शैली से थोड़ा सा अंतर होने के कारण आधुनिक विद्वान उनका परिचय चालुक्य शैली के नाम से देते हैं पश्चिमी भारत के कारीगर भी उनके बनाने में लगाए गए थे जिससे उनकी द्रविड़ शैली में कुछ उत्तरी शैली का मिश्रण हो गया है। इस शैली के मंदिर आदि बंबई हाते के दक्षिणो विभाग अर्थात् .कनड़ो प्रदेशों में धारवाड़ से लेकर निजाम और मैसूर राज्य तक, जहाँ चालुक्यों का राज्य रहा, जगह जगह मिलते हैं। नैपाल के शैव और वैष्णव मंदिर उत्तर भारत की शैली के हैं और कुछ मंदिर चीनी शैली के छज्जेदार और कई मंजिलवाले भी हैं ।
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