(१८१ ) श्यकता है कि उसने अन्य जातियों को क्या लिखलाया है। दृष्टि से देखने से भारतीय शिल्पकला का स्थान यूरोप चार एशिया की सब शैलियों में सर्वोच्च है। पुरातत्त्वान्वेपण की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि शिल्प की कोई भी जन्ती न तो सर्वया देशी है और न ऐसी है, जिसमें दूसरों से कुछ सीखने की आवश्यकता न हुई हो। प्रीस और इटली की शिल्प-शन्तियाँ भी इन नियम का अपवाद नहीं हैं। भारत ने जो कुछ बाहरवाली ले सान्या है उससे सौ गुना वाहरवालों को सिखलाया है।" मि० ग्रिफिथ का कथन है-'गुफाम्रों का दा कान तक निरीक्षण करने पर ऐसा कहीं भी मेरे देखने में नहीं आया कि कार्ग- गर ने पत्थर को आवश्यकता से कुछ भी अधिक काका हो प्रोफेसर हीरन लिखते हैं-'चतुरन्स मों पर की नाई के काम और स्त्री की प्राकृतिवाले स्तंभों कं बनाने काम और मिश्रवालों से बहुत बढ़ चढ़ | मां नगर है-'भारतीय शिल्प की मूर्ति में प्रदर्शित जीनामा भाव दीख पड़ते हैं, वे ग्रीस में नहीं पाए जाई. हमारे समय में वास्तुविधा का वात विकास हा नुसार विपय के कई ग्रंथ आज भी उपलब्ध हैं । हुचा राजा भोज का बनाया हुा सूत्रधार' नामक एक अत्यंत सामान्य उन्नति पूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुया है। जान पड़ता है कि हमारे समय तक माचर्यजनक हानि की वारत विद्या की
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