के कारण ( ७ ) न रहा। हिंदुओं ने बुद्ध को भी विष्णु का नवाँ अवतार मानकर बौद्ध जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। दोनों धर्मों में इतनी समानता बढ़ गई कि बौद्ध और बौद्ध धर्म के पतन हिंदू दंतकथाओं में भेद करना कठिन हो गया। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि लोग बौद्ध धर्म को छोड़कर हिंदू धर्म का; जिसमें सब प्रकार की स्वतं- त्रताएँ थीं, आश्रय लेने लगे। बौद्ध धर्म का अहिंसावाद यद्यपि मनो- मोहक था, परंतु क्रियात्मक नहीं रह गया था। राजाओं को युद्ध करने पड़ते थे, साधारण जनता भी मांसाहार छोड़ना पसंद नहीं करती थी। हिंदू धर्म में ये रुकावटे न थीं और फिर ब्राह्मणों द्वारा बुद्धदेव विष्णु के अवतार मान लिए जाने पर बहुत से बुद्ध-भक्तों की रुचि भी हिंदू धर्म की ओर बढ़ने लगी। अत्यंत प्राचीन काल से ईश्वर पर विश्वास रखती हुई आर्य जाति का चिरकाल तक अनीश्वर- वाद को मानना बहुत कठिन था। इसी तरह बौद्धों का वेदों पर अविश्वास हिंदुओं को बहुत खटकता था। कुमारिल तथा अन्य ब्राह्मणों ने वौद्धों के इन दोनों सिद्धांतों का जोरों से खंडन प्रारंभ किया। उनका यह आंदोलन बहुत प्रबल था और इसका परिणाम भी बहुत व्यापक हुा। कुमारिल के बाद ही शंकरा. चार्य के आ जाने से इस आंदोलन ने और भी जोर पकड़ा । शंकरदिग्विजय में कुमारिल के द्वारा शंकर को निम्नलिखित श्लोक कहलाया गया है। इससे शंकर के आंदोलन की व्यापकता का पता लगता है- श्रुत्यर्थधर्मविमुखान् सुगतान् निहन्तुं जात गुहं भुवि भवंतमहं नु जाने ॥ अर्थात् वेदार्थ से विमुख चौद्धों को नष्ट करने के लिये आप गुह ( कार्तिकेय ) रूप से उत्पन्न हुए हैं ऐसा मैं मानता हूँ।
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