पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/५४

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The - हैं ( २३ ) की तरह प्रावाज करना ), साष्टांग प्रणिपात और जपक्रियाएँ करते हैं। इसी तरह और भी बहुत सी क्रियाएँ हैं, जिन्हें इस संप्रदाय- वाले करते हैं। शैव संप्रदाय के लोगों का विश्वास है कि जीवों के कर्मानुसार शिव फल देता है। पशु या क्षेत्रज्ञ जीव, नित्य और अणु जब वह पाशों ( माया का एक रूप ) से छूट जाता है तब वह भी शिव हो जाता है, पर महाशिव की तरह स्वतंत्र नहीं होता। कर्म और पाश माया ही है। जप और योगसाधना आदि को भी ये मुख्य स्थान देते थे। शैवों के अन्य दो संप्रदायों- कापालिक और कालामुख- -के अनुयायी शिव के भैरव और रुद्र रूप की उपासना करते हैं। इन दोनों में विशेष भेद नहीं है । इनके छ: चिह्न-माला, भूषण, कुंडल, रत्न, भस्म और उपवीत-मुख्य इनका विश्वास है कि ऐसा करने से मनुष्य आवागमन के चक्कर से छूट जाता है। इस संप्रदाय के माननेवाले मनुष्य की खोपड़ी में खाते हैं, श्मशान की राख से शरीर मलते तथा उसे खाते भी हैं, एक डंडा और शराब का प्याला अपने पास रखते और पात्रस्थित देवता की पूजा करते हैं। इन बातों को वे इहलोक और परलोक में इच्छापूर्ति का साधन समझते हैं। 'शंकरदिग्विजय' में माधव ने शंकर के एक कापालिक से मिलने का उल्लेख किया है। 'हर्षचरित' में भी एक भयंकर कापालिक आचार्य का वर्णन किया है। भवभूति ने 'मालतीमाधव' में खेोपड़ियों की माला पहने हुए कपालकुंडला नाम की एक स्त्री का वर्णन किया है। इन दोनों संप्रदायों के साधुओं का जीवन बहुत भयंकर था। इस संप्रदाय के अनुयायी साधु ही होते थे, सामान्य जनता नहीं । अब तो इस संप्रदाय का अनुयायी शायद ही कोई हो । काश्मीर में भी शेवधर्म का प्रचार विशुद्ध रूप में था। वसुगुप्त ने इस संप्रदाय का मूल ग्रंथ 'स्पंदशास' लिखा, जिसकी टीका उसके वाण ने