( ३० ) भिन्न भिन्न भागों में उसे उत्पादक, संरक्षक, विनाशक आदि नामों से, बहुत प्रकार से, की जाती थी। सूर्य की मूर्तियों की पूजा कब से भारत में प्रचलित हुई, यह कहना कठिन है। वराहमिहिर ने सूर्य की मूर्तियों की पूजा का मगों के द्वारा प्रचलित होने का उल्लेख किया है। सूर्य की मूर्ति द्विभुज होती है। दोनों हाथों में कमल, सिर पर किरीट, छाती पर कवच और पैरों में घुटने से कुछ नीचे तक लंबे बूट होते हैं। हिंदुओं में पूजी जानेवाली मूर्तियों में से सूर्य की मूर्ति ही ऐसी है, जिसके पैरों में लंबे बूट मिलते हैं। संभव है, सूर्य की प्रथम मूर्ति शीतप्रधान ईरान से आई हो, जहाँ बूट पहनने का रिवाज था। भविष्यपुराण में लिखा है कि सूर्य के पैर खुले नहीं होने चाहिएँ । उसी पुराण में एक कथा है कि राजा सांब ( कृष्ण और जांववती के पुत्र ) ने सूर्य की उपासना से नीरोग होने के कारण सूर्य की मूर्ति स्थापित करनी चाही, परंतु देवपूजा से प्राप्त होनेवाले द्रव्य से ब्रह्म-क्रिया नहीं होती, यह कहकर उस कार्य को ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं किया। तब राजा ने शाक द्वीप ( ईरान का दक्षिण-पूर्वी भाग) से मग जाति के ब्राह्मणों को बुलाया । ये लोग अपनी उत्पत्ति
- एवमुक्तस्तु सांवेन नारदः प्रत्युवाच तम् ।
न द्विजाः परिगृह्णति देवस्य स्वीकृत धनम् ।। ४ ।। देवचर्यागतैव्यैः क्रिया वाही न विद्यते ॥ ५ ॥ अग्राह्य च द्विजातिभ्यः कस्मै देयमिद मया ॥ २८ ॥ मगाय संप्रयच्छ व पुरमेतच्छुभं विभाः ॥ २६ ॥ तस्याधिकारो देवान्ने देवतानां च पूजने ॥ ३०॥ भविष्यपुराण, ब्रह्मपर्व अध्याय ॥ १३६ ॥