( ५२ ) जायगा। कभी कभी उपवनों में बड़े बड़े भोजों की भी व्यवस्था की जाती थी, जिनमें बहुत से स्त्री-पुरुप सम्मिलित होते थे। लोग तोता मैना प्रादि पक्षियों को पालने के शौकीन थे। वे मुर्गा, तीतरों, भैंसों, मेढ़ों और हाथियों की परस्पर लड़ाई कराकर विनोद करते थे। बड़े बड़े मल्ल कुश्ती भी लड़ते थे। सवारी के लिये घोड़ों, हाथियों, रथों और पालकियों का प्रयोग होता था। जल-विहार भी बहुत होता था, जिसमें नौकाओं का प्रयोग किया जाता था। जल- विहार में स्त्रियाँ और पुरुष सभी सम्मिलित होते थे। स्त्री पुरुप मिलकर झूला झूलते थे। दोलोत्सव विशेपतः वर्षा ऋतु में हुआ करता था। इस प्रथा का आज भी प्रायः सारे भारत में प्रचार है। इन सव आनंदप्रद उत्सवों और प्रथाओं के अतिरिक्त शतरंज, चौपड़ आदि खेल भी खेले जाते थे। उस समय जुए का भी बहुत प्रचार था, परंतु उस पर निरीक्षण रहता था। सूत-गृहों पर सर- कारी कर लगता था, जैसा कि शिलालेखों आदि से पाया जाता है । क्षत्रिय लोग आखेट भी बहुत करते थे। राजा और राज- कुमार अपने दल बल के साथ शिकार करने जाया करते थे। यह शिकार तीर, भालों आदि से होता था। शिकार में कुत्ते आदि भी साथ रहते थे। कुछ विद्वानों का खयाल है कि हर्ष के समय तक भारत में सीने की कला का प्रचार नहीं हुआ था। वे अपने पक्ष की युक्ति में हुएन्त्संग का एक कथन पेश करते हैं; परंतु उनका यह मत भ्रांतिपूर्ण है। भारत में सब प्रकार के शीत, उम्ण और शीतोष्ण प्रदेश होने के कारण भिन्न भिन्न
- वि० सं० १००८ ( ई० स० ६५१) के उदयपुर के निकट के सारणे-
श्वर में लगे हुए प्राचीन शिलालेख से । + चि० वि० वैद्यः; हिस्ट्री श्राफ मिडिएवल इंडिया; जि० १, पृ० ८६ । वाटर्स श्रान युवनच्वांग; जि० १, पृ० १४८ । वस्त्र