पृष्ठ:मध्य हिंदी-व्याकरण.djvu/२०९

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( २०४ ) ३७४-जिस समास में दोनों संज्ञाएँ अथवा उनका समाहार प्रधान रहता है, उसे द्वंद्व समास कहते हैं। द्वंद्व समास दो प्रकार का होता है- (१) इतरेतरद्वंदू-जिस समास के दोनों पद "और" समुच्चयबोधक से जुड़े हुए हों, पर उस समुच्चयबोधक का लोप हो, उसे इतरेतरदंदू कहते हैं; जैसे, ऋषिमुनि, राधाकृष्ण, गाय-बैल, भाई-बहिन, नाक-कान । (२) वैकल्पिकद्वंद्व-जब दो पद "वा","अथवा" आदि ( विकल्पसूचक ) समुच्चयबोधक के द्वारा मिले हो और उस समुच्चयबोधक का लोप हो जाय, तब उन पदों के समास को वैकल्पिक कहते हैं । इस समास में बहुधा परस्पर-विरोधी शब्दों का मेल होता है; जैसे, जात-कुजात, पाप-पुण्य, धर्माधर्म । ३७५-जिस समास में कोई पद प्रधान नहीं होता और जो अपने पदों से भिन्न किसी संज्ञा का विशेषण होता है, उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं; जैसे, चंद्रमौलि ( चंद्र है सिर पर जिसके, शिव), अनंत ( नहीं है अंत जिसका, ईश्वर )। ३७६-इस समास के विग्रह में संबंधवाचक सर्वनाम के साथ कर्ता और संबोधन कारकों को छोड़ शेष जिस कारक की विभक्ति लगती है, उसी के अनुसार इस समास का नाम होता है; जैसे- करण-बहुव्रीहि-जितेंद्रिय (जीती गई हैं इंद्रियां जिसके द्वारा)। ‘कृतकार्य (किया गया है कार्य जिसके द्वारा )।