पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/३२

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को बढ़ बढ़ कर आलोचना होती चलती थी। उस मस्ती में बह मेरे मन की उद्विग्नता भी न देख सका । धूप और खिली। पसीने बह चले । मैंने कहा चलो, कहीं छांह में बैठे । धनी कुंज सामने थी। वहीं गये। बैठते ही जेब से दो अमरूद निकाल कर उसने कहा "सिर्फ दो ही पके थे घर के बगीचे के -यहीं बैठ कर खाने के लिये लाया था [---एक तुम्हारा--एक मेरा ।” मैंने चुपचाप अमरूद लिया-और खाया । एकाएक उठ खड़ा हुआ। वह आधा अमरूद खा चुका था। उसका ध्यान उसी के स्वाद में था। मैंने धीरे से पिस्तौल निकाली घोड़ा चढ़ाया-और कम्पित स्वर में उसका नाम लेकर कहा- "अमरूद फेंक दो और भगवान का नाम लो। मैं तुम्हें गोली मारता हूँ।" उसे विश्वास न हुआ-उसने कहा “बहुत ठीक, पर इसे खा तो लेने दो।" मेर। धैर्य छूट रहा था। मैंने दबे कण्ठ से कहा "अच्छा खा लो।" खा कर वह खड़ा हो गया। सीधा तनकर फिर उसने कहा "अच्छा मारो गोली ।' मैंने कहो "हँसी मत समझो, मैं तुम्हें गोली ही मारता हूँ भगवान् का नाम लो।" उसने हँसी में ही भगगन का नाम लिया और फिर वह नकली गम्भीरता से खड़ा हो गया। मैंने एक हाथ से अपनी छाती दबा कर कहा-"ईश्वर की सौगन्ध ! हँसी मत