पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/९८

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( ८६ ) जिनकी जज भी टेक रखते थे, लाट साहेब की कैंसिल में जब वे स्पीच देने खड़े होते थे--तब भी उन्हें कोई नहीं बैठा सकता था-पर इस तुच्छ चपरासी ने उन्हें फिर चक्की पर लगा दिया १ मा ! मा ! तुम मुह छिपाकर क्यों बैठ गई ? अरे ! तुम फिर रोने लगी ? बस यही बुरा है। देखो-आत्मा में बल आ रहा है । जूझ मरने के होंसले मन में उठ रहे हैं, धरती पर से ऊपर उठा जा रहा हूँ। मा ! तुम रोकर मेरे मन को मिट्टी मत करो। मैं बह जाऊँगा, मेरा अचल निश्चय बह जायगा-मैं संब सह सकता हूँ-मा का रोना नहीं सह सकता। क्या देवी की ज्वाला तुम्हारे नेत्रों में नहीं है ? इन आँसुओं को सुखा डालो, जला डालो, फूक डालो, आग जलामो-जल्दी, अभी । मुझे आँसू नहीं भाते । मुझे क्रोध आगया है । इधर देखो-भरे हुए नेत्रों से नहीं, ज्वालामय नेत्रों से, जैसे जल से भरे हुये काले बादलों के बीच ध्वंसिनी बिजली छिपी रहती है-उसी तरह तुम्हारी भृकुटी में सच्चे क्रोध की लौ होन चाहिये । उसी बिजली का एक प्रहार मेरे ऊपर करो-जैसे इन्द्री बज्र का प्रहार करता है । उसी एक प्रहार में मेरे तन मन की कायरता को जलाओ । हमारे मिथ्या संकल्प विकल्पों को जलाओ। हमारे द्वषपाप और हिंसा को जलाओ। मा! रोने में समय और आबरू मन खराब करो।