पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१०

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मल्लिकादेवी

"महाराज" यह सबांधन सुनकर हमारे युवा की न जाने कैसी दशा हुई कि एकाएक उसके मुख का रंग उड़ गया और माथा पकड़ कर वहीं सीढ़ी पर बैठ गया, और जहां तक होसका, जलदी अपने को सम्हाल कर उसने उस स्त्री से कहा,-

“ऐं ? आप कौन हैं ? और हमे बिना जाने समझे "महाराज!" कहकर क्यों पुकारती हैं ? "

स्त्री,-"क्यों महाराज!आप इतना घपरा क्यों गए ? खैर ! यदि मुझसे कोई अपगध भया हो तो क्षमा करिए और सुनिए,- हे प्रभू ! मैं एक तुच्छ दासी हूं, मुझे " आप आप" कहकर आप लजित न कीजिए। मैं जैसी अपनी स्वामिनी की दासी हूं, वैसी ही आपकी भी टहलनी हूं। और हां! अब मुझे इतना तो अवश्य निश्चय होगया कि यदि आप हमलोगों की भलाई न करेंगे तो कभी बुराई भी न करेंगे, आगे विधाता जानै । आइए, भीतर आइए।"

यह कहती हुई वह स्त्री बगल में होगई और युवा ने गौर गनेस मनाते मनाते चौखट के भीतर पैर रक्खा । ज्योंही युवा ने एक पैर भीतर रख कर सामने देखा, त्योंही उसका रहा सहा धीरज और भी जाना रहा और उसके चित्त की जो कुछ दशा उस समय हुई, यह धीरे धीरे आप ही आप प्रगट हो जायगी।

युवा ने देखा कि, 'सदर दर्वाजे के ठीक सामने, दूसरे द्वार की चौखट धरे, एक पद्रह सोलह वर्ष की परम सुन्दरी सलोनी याला एकटक इधर ही देख रही है। ज्योंही दोनों की आखें चार हुई, त्योंही बाला तो सिमट कर हट गई, किन्तु युवा नोचे खसांटे, लुटे मुसाफिर की भाति कलेजा थाम कर वहीं बैठ गया। उस विचारे बटोही युवा के मन की चाल, जो छिन भर में कडोडों कोस दूर पहुंची थी. इसे वह स्वय नहीं समझ सका, परन्तु वह चतुर और चौकस स्त्री, जिसने सदर द्वार खोल कर युवा को भीतर बुलाया था, दोनों की (युवा और बालिका की) आखों के लड़ने का मतलब बखूबी समझ गई पर उसे उस समय इतना अवकाश न था कि उन जहरीली आंखों की लड़ाई का फैसला करती। परन्तु हा ! इतना तो उसने जरूरही सोचा होगा कि,-'उस लजावती याला की चंचलता और रूपरस के प्यासे युवा की आतुरता जलदी ही कोई नया रंग दिखलाया चाहती है !'