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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१०५

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परिच्छेद]
(१०३)
वङ्गसरोजिनी।

"चिन्ताज्वरो मनुष्याणां चितादपि भयङ्करः।" नीतिदर्पण) । पगन्ह काल के समय निजन प्रकोष्ठ में एक षोड़शी व अ बाला बैठी चिता में मग्न थी। कर पर कपोल न्यस्त करके वह बिचारसागर का अवगाहन कर रही थी। Karwa सन्मुख एक मोती की माला रक्खे और दक्षिण हस्त में एक नामाङ्कित हीरे की अगूठी धारण किए स्थिर भाव से आंख बद कर वह कुछ सोच रही थी । वह माला और अंगूठी को उत्सुक नेत्रों से देखती और फिर उठा कर उनका चुम्बन करती, पुनः पूर्ववत् उन्हें रख कर चिंता करती थी। बार बार वह दीर्घनिश्वास और अविंदु त्याग करती थी। वह अञ्चल द्वारा मांसू पोंछ कर कभी नख से भूमि को खनन करती और कभी तृण तोड़ती थी । उसकी ऐसी शोचनीय अवस्था थी कि वह एक प्रकार से आत्मविस्मृत होगई थी, पर बार बार मुद्रिका और माला को देखती और उन्हें उठा कर चुम्बन करती थी। उसी प्रकोष्ठ में अपर द्वार से एक प्रौढ़ा धीरे धीरे प्रवेश करके बाला की शोचनीय अवस्था जान,चुपचाप उसके पीछे आकर खड़ी होगई । बालिका इतनी चिताग्रस्त थी कि उसे अपर व्यक्ति का आना नही जान पडा । वह स्वतंत्रता से अपने कार्य में लगी थी। प्रौढ़ा बालिका के पीछे खडी खड़ी उसके कौतुक को देख देख कर मनहीमन आनंदित और चितित होने लगी। उसकी आंखों में आंसू भरमाए गौर उसने चट अचल द्वारा आंसू पोंछ कर पालिका के सन्मुख आते आते कहा,-"बेटी ! मल्लिका! यह हार और अंगूठी तू कहांसे लाई?" यह सुन सहस्रो बश्चिकदंशन और कड़ोरों अशनिपतन से जो यंत्रणा अनुभव नहीं होती, उससे भी अधिक यंत्रणा उस समय उस बालिका को हुई, जो वस्तुतः मल्लिका ही थी और वह हत. चेतन होकर एक बार माता की ओर देख कर रोदन करने लगी। प्रौढ़ा कमला देवी थीं। जिस दिन सरला नरेन्द्र को बुलाने के