पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१०७

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परिच्छेद]
(१०५)
वङ्गसरोजिनी।

मल्लिका,-"तेरे करने से मेरी क्या हानि होगी ?"

यो कह कर मल्लिका ने सुशीला का हाथ थाम कर उसे चूम लिया और उसके हाथ में एक अंगूठी देखकर हंसते हंसते कहा- "कशोरी! तू तो निरी गङ्गाजल बनी जाती थी! बता यह क्या है?"

सुशीला,-"क्या! क्या हुआ?"

मल्लिका,-"तेरा सिर और क्या? बेचारी बड़ी भोली है, दुद्ध पोती है, कुछ समझती ही नहीं। बता यह क्या है ?"

सुशीला,-"है क्या? कुछभी तो नहीं है ?"

मल्लिका,-"कुछ नही है ? तो फिर विनोद भैया के हाथ की अगूठी तेरी अंगुली में कहांसे माई ?"

इतना सुनते ही सुशीला का मुख लजा से लाल होगया! बात प्रकट होगई और उसके छिपाने का अवसर न देख कर वह हताश होगई और क्षणभर के अनन्तर लजित भाव से बोली,-"मल्लिका जीजी! इसी अगूठी राड ने मेरी सब बातों पर पानी फेर दिया, इसलिये इसे अभी उतार कर मैं फेंक दूंगी।"

मल्लिका,-"फेंकना था तो दूसरे से लिया क्यों ?"

सुशीला,-" मैं तुम्हारे पामन पड़े, जीजी! मुझे मछेड़ो।

मल्लिका जीजी ! मुझे क्षमा करो।"

मल्लिका,-"इस अपराध की क्षमा नहीं है।"

सुशीला,-"तो यह लो।"

यों कहकर सुशीला अगूठी उतारना चाहती थी कि मल्लिका' इसका हाथ थाम कर उसके गले से लपट गई और उसकामुख चुम्बन करके कहने लगी,-"इतनी देर तक अकेले में बैठो क्या करती थी?

सुशोला,-"फिर वही बात भई तुम बड़ी कठिन हो।

मल्लिका,-"इसमें भी कुछ अनुचित हुआ क्या? अच्छा जाने दे, चल, उद्यान मे चलूं।"

अनतर दोनों उठ कर उद्यान की ओर गई। यद्यपि मल्लिका और सुशीला मुंह बोली यहिन थीं, तौभी बाल्यावस्था से इन दोनों में हास परिहास में निःसङ्कोच भाव होगया था। इसके अतिरिक्त बिनोद के साथ सुशोला काजी सम्बन्ध हुआ था,उसने भी मल्लिका का भाव कुछ बदल दिया था। प्रायः वे कुछ ही बड़ी छोटी थीं, अतएव परस्पर हासविलास में सकोच नहीं रहगया था।