"क्यों ? " युवा मे सोचा "क्यों? पर कुछ फल नहीं हुआ और युवा कुछ भी न समझ कर उसका मोच छोड़ कर मंदिर के इधर उधर देखने लगा । उसने देखा-मंदिर जैसा बाहर से जीर्ण और टूटा फूटा दीख पड़ता था, वह भीतर से वैसा नहीं है! भीतर ले वह दूढ़ लाल पत्थरों से बना हुभाथा। चारों ओर की दीवार में अनेक देवदेवियों के विचित्र चित्र चित्रित थे। बीच में मदिर, उसमें स्फटिकनिर्मित विशाल शिवमूर्ति स्थापित थी और उसके बगल में सिहारूढ़ा गिरिजा देवी की प्रशात मूर्ति स्थापित थी। सन्मुख एक बड़ा सा नदी रखा था । इसके अतिरिक्त अनेक पत्थर की मूर्तियां चारोंओर धरी थीं। भूमि में सफेद पत्थर बिछा था। कहीं पुष्प, कहीं बिल्वपत्र, कहीं धूप, कहीं निर्माल्य और कही और और पूजा के पदार्थ रक्खे थे। ऐसे निर्जन स्थान में इस प्रकार के मन्दिर और उसमें मनमोहिनी शङ्करमूर्ति देख कर युधा के चचल चित्त में शांति के सगभक्ति का उदय हुआ। यह विश्वेश्वर के सन्मुख खड़ा हो, हाथ जोड़ कर नाना प्रकार की स्तुति करने लगा। उसके कठ गदगद, अंग रोमांचित और नेत्र प्रेमाश्रुपूर्ण थे । उसने अपनी स्तुति के अंत में कहा,-
"प्रभो! तुम्हारे ही श्रीचरणों के भरोसे मैं इस गुरुतर कार्य में अग्रसर हुआ हूं। नाथ ! तुम्हें छोड़ कर विश्व में कोई इस निराश्रय का आश्रय और निःसहाय का सहाय नहीं है। इसलिये प्रभो! जिसमें निस भक्त का उद्धार हो, वही करना।
युवा के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी और कंठ सँधगया। उसने भक्तिभाव से प्रणाम करके उस घटे को, जो वहा लटकता था, बजा दिया । फिर युवा की दृष्टि दक्षिण और घाली दालान में पड़ी। उसने देखा कि वही षोडशी बालिका कनखियों से उसे देख रहो है। पर युवा को दष्टि का भार उससे सहा न गया, इसलिये वह बालिका तुरन्त यहांसे अंतर्धान होगई, और युवा ने भग्नहदय हो कर पीछे फिर फर क्या देखा कि पीछे वही सुंदरी युवती, जिसने द्वार खोला था, हाथ में जलपात्र लिये खड़ी है।
युवती जब जल ले कर आई थी, उस समय युवा स्तुति में लवलीन था, इसलिये उसने युवती का आना नहीं जाना था । युवती भी युधा की स्तुति से सकपका कर चुपचाप खड़ी हो सुनती थी।