परिच्छेद ] बङ्गसरोजिनी। (१२६ ) "सुशीला ! तू व्यर्थ क्यों अपनी सब पंडिताई खर्च कर रही है ? इतने व्यङ्ग का क्या प्रयोजन है ? तू अपनी माला में शिल्पचातुरी दिखा कर बिनोद को मोहित कर लीजियो। तू जो इतना शीघ्र विनोद के रग में रंग जायगी, यह मुझे स्वप्न में भी अनुमान नहीं होता था।" सुशीला,-"कहां की बात और कहां ले उडी ! वाह ! सच्ची बात कहने पर तुम परिहास करने लगी! ऐं ! जीजी मैं किस के लिये माला मना रही हूं ? तुम्हारे ही लिये न ! मल्लिका जीजी ! मैं आज तुम्हारा फूलों का शृङ्गार करके तुम्हें राधिका बनाऊँगी ___ मलिका,-"और मैं तुझे कृष्ण बनाऊंगी ! क्यों ? कैसी सुन्दर रासलीला होगी? पर उत्तम तो यह होगा कि विनोद कृष्ण और तू राधा बने । न होगा तो सरला ललिता बन जायगी और तब तेरी बनाई माला भी चरितार्थ होगी । अब बोल !!! " सुशीला,-"भई ! तुमसे बोलफर कौन जीतेगा !!!" यों कहकर सुशीला निम्नमुखी हुई और लज्जा से मल्लिका की ओर न देख सकी । मल्लिका ने उसका यह भाव समझा, पर वह छोडनेवाली न थी, सो उसने सुशीला का चिबुक चुम्बन कर हसते हंसते कहा,-"सुशीला!--" सुशीला,-"मल्लिका जीजी!--- मल्लिका,-"तू एक काम करेगी ?" सुशीला,-"ना,भाई.मुझसे तुम्हारा काम न होगा,सरलासेकहो।" यों कहकर सुशीला हँसने लगी, मल्लिका ने भी हंस दिया । इसी अवसर में भीतर से किसीने आह्वान किया,-" मल्लिका, बेटी ! जरा इधर तो भाइयो!!!"ये शब्द मल्लिका के कर्णकुहर में प्रविष्ट हुए। वह शीघता से उठ कर सुशीला से बोली,-" सुशीला! मां पुकारती हैं,मैं सुन आऊ तब तक तू शेष फूलों की माला बनाले।" __यों कहकर मल्लिका शीघता से चली गई । उसे कमलादेवी ने पुकारा था। सुशीला वहीं सोपान पर बैठी बैठी मालाग्रन्थन करने लगी । एकाग्र मनसे माला ग्रंथन करते करते उसके नेत्रों में दोएक अश्रविंदु दीख पड़े, और क्रमशः गडस्थल से वहमान होकर भूमिसात् हुए; सुतरां सुशीला ने दीर्घनिश्वास लेकर स्वयं कहा,-
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