पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद]
(२५)
वङ्गसरोजनी

चौथा परिच्छेद

हरण।
"संगमविरहवितर्के वरमिह विरहो न संगमस्तस्याः।"

(सुभाषित)

उपयुक्त अवस्था में नरनारी के हृदय में जो अभाव उपस्थित होता है, वह कितनी दृढ़ता धारण करता है, यह कहना दुष्कर है। उसी अभाव का नाम विरह है। विरह केवल नारी के हृदय में ही यातना उत्पन्न करता है, ऐसा नहीं है। वह नर को भी विषम यातना देता है।

जिस समय विश्वसंहारक शंकर की हदयाह्लादिनी ने दक्षयज्ञ में अपना शरीर भस्म कर दिया था, उस समय महादेवजी अपना हृदय शून्य देखकर उस यातना में सती के मृत देह को आलिंगन करके भी उस शून्यताको पूर्ण नहीं कर सके थे। बस इसी अवस्था का नाम विरह है।

विरह कुछ सामान्य व्याधि नहीं है, इसकी न औषधि है और न उपाय है। तात्पर्य यह कि नायक वा नायिका अभिलषित वस्तु के न पाने ही से पीड़ित और पाने से शांत होते हैं।

हमारी परिचिता सरलहृदया मल्लिका को भी यही अभाव उपस्थित हुभा। मल्लिका ने महाराज नरेन्द्र को छोड़कर किसी दूसरे वीर की प्रतिमूर्त्ति को हदय में पहले स्थान नहीं दिया था। यह उसी कमनीय मूर्ति का ध्यान करके अत्यन्त कातर होने लगी। उस समय आशा ही केवल उस अभाव के पूर्ण होने का भरोसा देकर उसे कुछ शान्त करती थी।

"एक सप्ताह व्यतीत होगया, अभीतक महाराज नहीं आए, आजही पूर्णिमा है। क्या दासीपर दया करके फिर दर्शन देंगे? मेरा क्या ऐसा भाग्य है कि रानी बनूंगी?"

इस प्रकार की चिन्ता मल्लिका बराबर करती, और सूने घर में बैठी बैठी आंसू बहाया करती थी। जिसने दस दिन पहिले मल्लिका की स्वर्गीय रूपराशि देखी होगी, वह एक सप्ताह के अनंतर