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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/३४

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(३२)
[छठां
मल्लिकादेवी

छठां परिच्छेद.

बंधुविच्छेद।
"एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य।
तावद् द्वितीयं समुपस्थित मे—————————"

(हितोपदेश)

इधर महाराज ने जब आंखें खोलकर देखा तो न वह वन है, न गुहा है, न अभिन्नहृदय मित्र हैं और न रजनी है! उन सभों के बदले उन्होंने अपने को एक अट्टालिका में परिष्कार शैय्या पर शयन करते हुए पाया। महाराज ने कभी आंख बंद करके और कभी खोल कर उत्तमता से चारो ओर देख अपनी अवस्था की परीक्षा की, पर फल कुछ न हुआ। उन्होने स्वयं कहा,—"यह क्या हम दुःस्वप्न देख रहे हैं! वा कोई इन्द्रजाल है! किसीने वस्तुतः हमें इस मायाजाल में फँसाया है? यह किस मायावी या मायाविनी का कर्म है?"

अनेक तर्कवितर्क करने पर भी वे इस व्यापार को समझ न सके। अनंतर वे शैय्या त्याग, इधर उधर प्रकोष्ठ में टहलने लगे। उन्होंने चारो ओर देखा, किन्तु कहीं भी खिड़की, मोखा वा कोई छिद्र नहीं दिखाई दिया। गृह में केवल एकमात्र द्वार था, जो परीक्षा करने से जान पड़ा कि वह भी बाहर से बंद है। महाराज ने बहुत खोजा, पर उस द्वार में कोई भी छिद्र नहीं पाया गया कि उसकी सहायता से कुछ बाहर का वृत्तान्त जाना जाता। अनंतर वे हताश, आश्चर्य्यान्वित और संदिग्ध तथा कुछ भयविह्वल होकर उसी गृह में इधर उधर घूमने लगे। क्षण काल के पश्चात हृदय का भय दूर करके वे हृढ़ता से शैय्या पर आकर बैठे, पर अपने पास शस्त्र के न रहने से कुछ घबरा गए। उस घर में शैय्याके अतिरिक्त और कोई पदार्थ नहीं था, जिससे वे अपने चित्त को आनन्दित करते। सो खाली बैठे बैठे उनका चित्त घबराने लगा। कालातिक्रमण होने और कल के एक प्रकार निराहार दिन यापन करने से क्षुधापिपासा भयंकर मूर्ति धारण करके उन पर आक्रमण करने लगीं।