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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/४६

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(४४)
[आठवां
मल्लिकादेवी।

का पत्र तुमने देखा न ।”

नरेन्द्र,--" उस सत्यानाशी के असभ्यतामय पत्र को हमने पढ़कर मारे क्रोध के जला डाला। अब बिना उसका उष्ण रक्त पान फिए, हमारा हदय शीतल नहीं होगा।"

विनोद,--'पत्र जलाना उत्तम नहीं हुआ, वह पत्र बादशाह को दिखलाया जाता; अस्तु । प्रबल शत्र को मीठी छुरी से, वा कण्टक को कण्टक रो ही दूर करना चाहिए। अस्तु, उसने क्या लिखा था, यह तो स्मरण है न ? "

नरेन्द्र.--"भई उस सत्यानाशी का अब नाम न लो, प्रतारक लिखता है कि, 'किला खाली कर दो, तुम्हारे दीवान की लडकी कहां है, उसे खोजकर, हमारी खिदमत मे दाखिल करा, दस लाख रुपए नकद और आपनी कुल फ़ौजें देदो,हमारी ओर से शाहदेहली से लड़ो--' इत्यादि इत्यादि। क्या, तुम्हारे चचा ने उसके पत्र का उत्तर लिखा!"

विनोद,--"हा | सब ठीक है। हम लोग उस नरप्रेत को स्वर्ग की सैर मे अंटका लेंगे। उत्तर भी इस प्रकार का दिया गया है, कि यह पापी भी समय निकल जाने पर याद करेगा। बस! बादशाह आए, और सब संदेह मिटा।"

विनोद कुछ और भी कहा चाहते थे कि इसो अवसर में उस गृह में एक अपर व्यक्ति ने, जिसके मुखपर आवरण (नकाच) पडा हुआ था, प्रवेश करके अभिवादन-पूर्वक महाराज के हाथ में एक पत्र दिया। पत्र लेकर उसकी मुहर देख दोनों प्रसन्न हुए और उसे खोलकर पढ़ने से उनके हर्ष की सीमा न रही।

पाठकों की इच्छा उस पत्र के विकल वृत्तान्त जानने की होगी, हम भी उनकी इच्छा के प्रतिकूल नहीं हैं। अतएव कहते हैं सुनिए,- उस पत्र पर दिल्लो के बादशाह की मुहर थी। उस पत्र को शहंशाह गयासुद्दीन बलवन ने अपने दूत के हाथ महाराज के समीप प्रेपण किया था। वह पत्र फ़ारसी भाषा मे था, पर हम उसका अनुवाद अपने पाठकों को सुनाते हैं,-

"श्रील श्रीयुक्त श्रीमहाराज नरेन्द्रसिह, वीरपुंगव, भार्गवपुरा. धीश्वरस्य धोमलकरकमलकुडमलेषु,

"मित्रवर,