पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/८

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मल्लिकादेवी

युवक इतनी देर जो चुपचाप ऊपर कही हुई बातें सोचता रहा और उसने कुछ जवाब न दिया, यह और बुरा हुआ । भीतरवाली स्त्री का सदेह और भी बढ़ा और उसने कड़ाई के साथ कहा,-

"क्यों जी ! भाप चुप क्यों होगए! अपना परिचय क्यों नहीं देते ! बस बस, मैंने समझ लिया कि कुछ दाल में काला जरूर है! अच्छा अब या तो आप अपना ठीक ठोक परिचय दीजिए, नही तो अपनी राह देखिए । यहाँ ऐसे वैसे भडेरियों के लिये रत्ती भर भी स्थान नहीं है । जाइए, चले जाइप, अपनी राह नापिए और याद रखिए कि यह फाटक आपसे टूटनेवाला नहीं है। "

ऐसी रुखाई का जवाब पाकर हमारे युवा के चित्त की कैसी दशा हुई होगी,यह कहना सहज नहीं है; उसने मातुर होकर कहा-

"हे भगवन् ! यह कैसा तमाशा है !!! हाय ! एक थके मादे बटोही की प्यास के मारे जान निकल रही है और किसी के चित्त में तनिक दया नहीं आती कि दोबंद जल देकर प्राण दान करे।हाय! कैसा अंधेर है!हे सुशीला! हे सती!चाहे तुम कोई हो!चाहे तुम दुष्टों के हाथों से कितनी ही सताई जा चुकी हो, चाहे तुम्हे आठों पहर अपने जानमोल का खतरा बना ही रहता हो, चाहे तुम इस जगह बत्तीस दांतों में जीभ की तरह दबी दवाई छिपकर रहती हो, पर याद रक्खो, हम चाहे कोई क्यों न हों, किन्तु यहां किसी के सताने की इच्छा से नहीं आए हैं। हे भगवन् ! जो क्षत्री संतान हैं, जिनके शरीर में एक बंद भी शुद्ध क्षत्रियरुधिर है, वह अपने बैरियों की स्त्रियों को भी अपमान और कष्ट नहीं पहुंचाते। हे दुखिया स्त्री! हम धर्म की साक्षी देकर कहते है कि यदि तुमलोग हमारी बैरिन भी हो, तो भी इस समय हमसे भय मत करो और यदि हमारी वैरिन न हो तो अब से हमे अपना पूरा हितैषी और शुभचिन्तक समझो । आज से हम अपने प्राण बचानेवाली (पानी पिलाकर) के लिये काम पड़ने पर अपना खून देने को तैयार रहेगे, बस इससे जादे कहने की अब हमे सामर्थ्य नहीं है। यदि इतने पर हमारा विश्वास हो तो ठीक है, नहीं तो कहो, अब हम बिना जल पीये ही लौट जायं, इसमें प्राण रहे चाहे जाय । कहो, अब क्या कहती हो!"

"अच्छा ठहहिए,खोलती हूं" यह कहकर उस स्त्रीने द्वार खोला और एकाएक हमारे बटोही युवा को देखकर चौंक उठी। उसने