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(७८)
[पन्द्रहवां
मल्लिकादेवी।

महाराज,--"अस्तु, दिल्लीश्वर अतिशय प्रसन्न हैं ?"

शाहज़ादा,--"खुदा का फ़ज़ल है। चलिए वे आपकी मुलाकात के इश्तियाक में बैठे हैं।"

अनतर शाहजादे ने महाराज का हाथ थाम कर अनुचरवर्गों के सहित पटमन्दिर के भीतर गमन किया. अश्व की रक्षा का भार द्वारपालों के सिर पडा।

महाराज को देखकर बादशाह अतीव हर्ष के सङ्ग सिंहासन से उठे और महाराज का सादर पाणिग्रहण करके कठाश्लेष किया। दोनों महानुभावो मे परस्पर यथोचित अभिवादन हुआ। बादशाह महाराज को निज सिहासन पर अपनी दाहिनी ओर बैठाया चाहते थे। पर महाराज ने अस्वीकार कर दिल्लीश्वर के बाम भाग में दूसरी रत्नमयी चौकी पर आसन ग्रहण किया, और प्रथम बादशाह को बैठाकर अनंतर वे स्वय बैठे। बादशाह के इङ्गित से सब अनुयायिवर्ग यथोचित स्थान पर बैठे, शाहजादे बोदशाह के दहिने एक चौकी पर सुशोभित हुए । परस्पर अनत वार्तास्रोत प्रेमवेग से बहने लगा।

बादशाह ने सरिसत कहा,--"आपका मिज़ाज शरीफ़ सलतनत में अमन व रियाया खुश व खुर्रम है ? "

महाराज,--"जब आपके श्रीचरणों ने बङ्गभूमि को अलकन किया है, तब मंगल होने मे त्रुटि क्या है ? अन्यथा तुगग्लखा जैसे नवाबों से-महोदय !-आनन्द और शान्ति कप हो सकती है ? अस्तु श्रीमान का सर्वाङ्गीण मंगल । "

बादशाह,--"खुदा के करम से जिंदः हूं, और अच सफ़र से तबीयत भी कुछ फ़र्हत-याफ्तः है। हां यदुनाथसिंह मजे में हैं ! वे आपके साथ नहीं आए ?

यदुनाथसिंह का नाम सुनते ही महाराज का मुख विषण्ण होगया, और उन्होने दीर्घनिश्वास लेकर भग्नस्वर से कहा,- "श्रीमान ! कहते हृदय विदीर्ण होता है, आज दो वर्ष गत हुए, इन्हीं दुष्ट पठानों ने, या यों सही कि तुगरलखां के षडयत्र ने उनका सर्वनाश किया। हा! उस सजन व्यक्ति को विनाश करके उनकी सती स्त्री और अनूढ़ा कन्या को न जाने कहां, किस दशा में उन दुष्टों ने रक्खा है, इसका कुछ भी अनुसंधान नहीं मिलता। मैंने