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[पन्द्रहवां
मल्लिकादेवी।

तब महाराज ने हसकर कहा,-"इसमें आश्चर्य की क्या बात है?"

बादशाह--"सरासर ताज्जुब मकाम है!!! ऐसे खौफनाक वक्त में अकेले इस तरह घूमना आपही का काम है !"

महाराज,--"अवश्य ही मैं मृत्यु के मुख मे पड चुका था,किन्तु ईश्वर ही ने रक्षा करके आपके समाप तक पहुंचाया।"

बादशाह,--"ऐं ! क्या फर्माया आपने ? क्या हुआ था ?"

इस पर महाराज ने,शाही दून के मारे जाने, पुनः एक अपरिचित से उस (शाही)पत्रके पाने, अपनी सुरङ्ग में बारूद बिछाई जाने का समाचार जानने, तदनन्तर मत्री विनोदसिंह के साथ बादशाह से मिलने के लिये प्रस्थान कर बन मे मृग का पोछा करने, फिर वन के मध्य मे रात्रि के समय शयनावस्थामे यवनों के हाथ पड़ने फिर यननों का निज प्रस्ताव प्रकाश करने, और उनका बध करके अपना मार्ग लेने, इत्यादि का सविस्तर वृत्तान्त कह सुनाया, पर मल्लिका के अतिथि होने का हाल छिपा रखा। यह सब सुन कर बादशाह की आंखें क्रोध से लाल होगई, उनकी भुजा फड़कने और अङ्ग प्रत्यङ्ग कापने लगे।

उन्होंने गर्ज कर सभासदों की ओर मुख फेर कर कहा,-"बस, जहांतक होसके, अब जलबी ही शैतान तुगरल का सर काटलो, क्योंकि उस बदकार का अब ज़ियादह दिन दुनियां में रहना बिहतर नहीं है। उसके खान्दान में कोई भी जीता बचने न पावे और न वह भाग कर निकल जासके।"

यह सुन सभी सभासद नीरच थे, किसीके मुख से भी कोई शब्द नहीं निकलताथा।यह देख,सहसामहाराज ने कहा, "दिल्लीपति!

उस दुष्ट के बध काभार मैंने अपने ऊपर उठाया। ईश्वर की कपाऔर 'आपकी सहायताहुई तो वह शीघ्र ही अपने पापों का फल पाएगा।" महाराज की बातें सुन सभी महा आनन्दित होकर उनके साहस को आंतरिक धन्यवाद देने लगे।

बादशाह ने शातिलाभ कर के कहा,-"बाकई आपक्षत्रियवीर और हिंदुनों के सरताज हैं।वर न कौन ऐनी हिम्मत दिखलाएगा? अलाहाजलकयास, आपकी बात दिलो जान से कुबूल हुई, गब उस दोज़खी कुत्ते को जिस तरह आप चाहें, फ़ौरन कतल कर डालें।"

महाराज,-"श्रीमान के लिये मैं दिलोजान से तैयार हूं।"