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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/८८

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(८६)
[सोलहवां
मल्लिकादेवी।

और आपकी आज्ञा से अब से आपको 'आप' कहकर सबोधन न करूगी।

युवक.-"तुम तो अभीतक कुमारी हौ न !"

बालिका,-(सलज्ज भाव से ) "जी, हां!"

युवक,-"और इसके लिये भी तुम स्वतंत्र हो कि चाहे जिसे तुम अपने को देडालो ! जैसा कि तुमने अभी कहा है कि, 'मुझे और कोई नही है ?"

यह सुनकर बालिका लजा से कुछ देर लो चुप रही, फिर युवा के बार बार प्रष्ण करने पर बोली,-"यह सत्य है. कि मेरा अपना कोई नहीं है, किन्तु इससे आपको क्या?आपकाअभिप्राय क्या है?"

युवक,-"हमारी इच्छा यही है कि यदि तुम दया करके हमारे हृदय की अधिष्ठात्री देवी बनो तो हम अपने को कृतार्थ समझे।" बालिका,-(सलज भाव से ) " क्या यह बात आप सच कहते हैं ?

युवक,-(तन्वार की मूठ पर हाथ डालकर ) "हम क्षत्रिय हैं, अतएव तल्वार छकर शपथ खाते हैं कि हमने अभीतक विवाह नहीं किया है और तुम्हारे ऐसी सुशीला भार्या पाकर सचमुच हम अपने को भाग्यवान और कृतार्थ समझेगे।"

इतना सुनकर उस बालिका ने अपने को उस वीर युवक के चरणों पर डाल दिया और रोकर कहा,-"आजसे मैं आपके चरणों की दासी हुई।

इतना सुनकर उस युवक ने उठाकर उस बालिका को अपने हृदय से लगा लिया और उसके कपोलों का चुंबन करके कहा,- प्रिये ! तुम आजसे हमारे हृदय की अधिष्ठात्री देवी हुई।"

इतना कहकर उस युवक ने जब अपना यथार्थ परिचय उस बालिका को दिया तो वह अत्यंत प्रसन्न हुई और उसके अनंतर उसने भी संक्षेप में अपना सारा परिचय उस युवा को दिया, जिससे उस के आनन्द की सीमा न रही और उस युवक तथा उस बालिका- दोनों ने इस बात को जान लिया कि यह पारस्परिक संयोग विधाता की अनन्त दया के कारण ही हुआ है !'

युवक,-"अच्छा, अब प्यारी ! तुम हमारे साथ शीघ्र यहांसे चली चलो, क्योंकि यह स्थान भयङ्कर है और संभव है कि कदाचित