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पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/३१

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किसी चीज़ को गिनते तो हैं नहीं, अतएव उसने धूर्ततः से १५० दीनार निकाल लिये। सादी ने धन्यबाद में एक कविता लिखकर भेजी, उसमें ३५० दीनारों का ही ज़िक्र था। अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ, गु़लाम को दण्ड दिया और अपने एक मित्र को जो शीराज़ में किसी उच्च पद पर नियुक्त था लिख भेजा कि सादी को १० हज़ार दीनार दे दो। लेकिन इस पत्र के पहुंचने से २ दिन पहले ही उनके यह मित्र परलोक सिधार चुके थे, रुपये कौन देता? इसके बाद अलाउद्दीन ने अपने एक परमविश्वस्त मनुष्य के हाथ सादी के पास ५० हज़ार दीनार भेजे। इस धन से सादी ने एक धर्मशाला बनवादी। मरते समय तक शेख़ सादी इसी धर्मशाला में निवास करते रहे। उसी में अब उनकी समाधि है।