पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अिच्छा होती है । जिसने मुझे आश्रमकी तरफसे बिलकुल निश्चिन्त कर दिया है।" नारणदासको लिखते हुअ कहा था ." हम अन्दर रहकर ताप नहीं सह रहे हैं, तुम आन्तरिक और बाह्य दोनों तपश्चर्या कर रहे हो।" झुकी पढ़ाओके बारेमें देवदासको लिखते हैं - " हरओक पाठमालाके अतिहासिक भाग होते हैं । अिसमें कुछ भाग पैगम्बरका और अनके जमानेका होता है और कुछ हिन्दुस्तानमें जो मुसलमान बादशाह हो चुके हैं अनका रहता है। अिसमें जो दृष्टिकोण रखा गया है असे मेरे विचासे सभीको समझना चाहिये । झु के परिचयका महत्व मैं अधिकाधिक देख रहा हूँ। लिखनेसे चिट्ठी पत्री तो लिखी ही जा सकती है, साथ ही अिससे भी ज्यादा और सच्चा लाभ यह है कि लिखनेसे भाषा पर ज्यादा काबू होता है। और पढ़ने में मदद मिलती है । मुझे तो समझनेमें भी मदद मिलती है। मैं यह मानता हूँ कि हमें मुसलमान साथियोंको अमें लिखते आना चाहिये । अन्हें अंग्रेजीमें ही लिखना पड़े, तो हिन्दी किसी दिन भी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन सकती। अिसलिओ मेरे खयालसे तो अर्दू लिखनेकी शक्ति हमारे लिखे जरूरी है।" फिर रैहाना तैयबजीको पत्र लिखनेके लिओ किस तरह अर्दू लिखना शुरू हुआ जिसका अितिहास बताकर लिखा " मुसलमानोंके साथ शुद्ध सम्बन्ध स्थापित करनेके ये अहिंसक और नाजुक अपाय हैं ।" विरलाको पत्र लिखते हु हिन्दी में लिखा आशावाद और भोलेपनमें मैं भेद करता हूँ। पंडितजीमें दोनों हैं । दृष्टिमर्यादा पर निराशाके चिह्न होते हुझे भी और जानते हुझे भी जो आशा रखता है वह आशावादी है । यह गुण पंडितजीमें काफी मात्रामें है। आशाकी बातें कोी कह देवे और असपर विश्वास लाना वह भोलापन है । यह भी पंडितजीमें है। असे मैं त्याज्य समझता हूँ। पंडितजी महान व्यक्ति हैं, अिसलिओ सुनको असे भोलेपनसे हानि नहीं हुी है । देखें, हमें जैसे भोलेपनका अनुकरण कभी नहीं करना चाहिये । आशावाद अन्तर्नाद पर निर्भर है, भोलापन बाह्य बातों पर निर्भर है।" मालवीयजीको या अन्हें विलायत जाना चाहिये या नहीं, अिस विषयमें बिरलाने राय पूछी थी। वापूने लिखा कि “ राय देनेका मुझे अधिकार नहीं है। मेरे साधारण विचार अिस मामलेमें जाहिर हैं।" - आज सेंकी पर वेल्सफोर्डका लेख पढ़कर बापू कहने लगे "यह दिन दिन ज्यादा ज्यादा सावित होता जा रहा है कि विलायत जाना २८-५-३२ बिलकुल आवश्यक था। वहाँ न गये होते तो हमें और हमारे मामलेको लोग भितना न समझ सकते । आज अितने ज्यादा आदमी निःस्वार्थ बुद्धिसे काम कर रहे हैं, यह कोसी जैसी वैसी बात नहीं है।" १७८